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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 30-42
उसके इन रूखे वचनों को सुनाकर भीमसेन क्रोध से आगबबूला हो गया। किसी तरह भीष्म ने उसे बलपूर्वक रोका। किन्तु शिशुपाल को अपने बल का गर्व था, वह बिल्कुल भी न डरा और हंसता हुआ कहने लगा, “अरे भीष्म, इसे छोड़ क्यों नहीं देते? अपने प्रताप की अग्नि में जलते हुए इस पतिंगे को मैं देख लूं।” इस प्रकार और भी ‘तू-तू, मैं-मैं’ उस सभा में हुई और शिशुपाल ने अपनी गालियों की बौछार कृष्ण पर छोड़ दी और उन्हें युद्ध के लिए ललकारा। अन्त में कृष्ण ने क्रुद्ध होकर अपने चक्र से शिशुपाल का सिर अलग कर दिया। उस समय मानो अनभ्र आकाश से वृष्टि हुई और जलता हुआ वज्र छूटा। उपस्थित राजाओं में सन्नाटा छा गया। कुछ दांत पीसने और होंठ काटने लगे, कुछ कृष्ण की बड़ाई करने लगे और कुछ मध्यस्थ हो गए। तब युधिष्ठिर ने शिशुपाल के पुत्र को चेदि देश का राजतिलक कर दिया, और इस प्रकार वह यज्ञ शान्त-विघ्न होकर समाप्त हुआ। युधिष्ठिर ने अवभृथ स्नान किया और समस्त राजमण्डल ने चारों ओर से उन्हें बधाई दीः “हे अजमीढ़ के वंशज, तुमने आज साम्राज्य पाकर अपने पूर्वजों का यश बढ़ाया है। तुम्हारे इस कर्म से धर्म की वृद्धि हुई है। अब हमें आज्ञा दो, अपने राष्ट्रों को जायं।” यह सुनकर युधिष्ठिर ने सबको यथोचित रीति से विदा किया। राजाओं के चले जाने पर कृष्ण ने भी युधिष्ठिर से विदा मांगी। युधिष्ठिर ने गद्गद कण्ठ से कृष्ण का ऋण स्वीकार किया। चलते हुए कृष्ण ने कहा, “हे युधिष्ठिर, जिस प्रकार मेघ सब भूतों का संवर्धन करता है, वैसे तुम प्रमाद-रहित होकर प्रजाओं का सदा पालन करना।” इस प्रकार कहकर कृष्ण अपने रथ पर चढ़कर द्वारावती चले गए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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