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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 12-22
इस समय भारत में दो प्रकार की शासन-प्रणालियों से लोग परिचित थे। एक सार्वभौम शासन-प्रणाली थी, जिसमें अनेक जनपदों के बीच कोई एक राजा अश्वमेध या राजसूय यज्ञ करके ऊपर तैर आता था, किन्तु वह अन्य जनपदीय राजाओं को उखाड़ता न था। प्रत्येक जनपद की पृथ्वी का स्वामी पार्थिव कहलाता थाः किन्तु कई जनपदों के प्रदेश को मिलाकर महापृथ्वी या सर्वभूमि कहते थे। उसी का अधिपति सार्वभौम कहलाता था। दौःषन्ति भरत इसी प्रकार के सार्वभौम थे, जिन्होंने अनेक अश्वमेधों द्वारा अन्य जनपदीय राजाओं को अपने वश में किया, किन्तु उन्हें जड़ से उखाड़ा नहीं। दूसरी शासन-प्रणाली गणराज्यों की थी। अन्धक-वृष्णियों में यही शासन था। इस पद्धति में प्रत्येक कुल एक इकाई माना जाता था। हर एक कुल का प्रतिनिधि राजा कहलाता था। कुलों के राजा मिलकर अपने में से किसी एक को श्रेष्ठ चुन लेते थे। कभी कोई श्रेष्ठ बनता, कभी कोई। इस प्रणाली को परमेष्ठ्य पद्धति कहा गया है। साम्राज्य और परमेष्ठ्य इन दोनों के तारतम्य का विवेचन करते हुए युधिष्ठिर ने कहा, “हे कृष्ण, आपने जो कहा है, वह ठीक ही है। सम्राट शब्द अन्य सबको हड़प लेने वाला है।[1] उसमें और गणराज्य में तीन मुख्य भेद हैं। साम्राज्य का आधार बल है, कुल राज्य का आधार शम या शांति की नीति है। जो लोग केवल मोक्ष में शम की बात कहते हैं, मैं उनसे सहमत नहीं। शम की नीति तो राज्य के लिए भी है। दूसरे, सम्राट सारे जनपद के कल्याण को अपने ही केन्द्र में समेट लेना चाहता है। किन्तु कुलराज्य में यह विशाल भूमि जहाँ तक देखें, रत्नों से बिछी हुई जान पड़ेगी। जनपद के भीतर दूर-दूर तक जनता का श्रेय या कल्याण व्यापक रूप में पाया जायेगा। तीसरे, सम्राट अपने समक्ष अन्य किसी के अनुभव या व्यक्ति-गरिमा को स्वीकार नहीं करता, किन्तु कुलराज्य में दूसरों से समवेत होकर ही कोई व्यक्ति प्रशस्त और पूज्य बनता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सम्राट शब्दोहि कृत्स्नभाक, सभा.14।2
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