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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 7-11
यहाँ युधिष्ठिर का प्रश्न इसी पृष्ठभूमि को लेकर पूछा गया है। मय असुर ने युधिष्ठिर के लिए जो सभा बनाई थी, उसे मणिमयी कहा गया है, जिसका स्वाभाविक अर्थ यह है कि वह पत्थरों की बनी हुई थी। लोक में जिसे संग कहते हैं, उसे ही प्राचीन परिभाषा में मणि कहते थे। इसीलिए यशब, हकीक आदि की बनी हुई गुरियां मन के कहलाती थीं। ज्ञात होता है कि युधिष्ठिर की यह सभा लकड़ी की न होकर पहले-पहल पत्थर की बनाई गई थी। यह परिमाण में लम्बी-चौड़ी थी और भीतर से इसके खंभे और पत्थर घोटकर चिकने और चमकदार बनाये गए थे। अतएव युधिष्ठिर के पूछने पर नारद ने कहा, “हे तात, जैसी तुम्हारी यह मणिमयी सभा है, वैसी मनुष्यों में न पहले कभी देखी गई और न सुनी गई।”[1] नारद के इस कथन के मूल में ऐतिहासिक तथ्य है। पत्थर की सभा का पहला उदाहरण मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त की सभा का मिला है, जिसका उल्लेख पतंजलि ने भी अपने महाभाष्य में ‘चन्द्रगुप्त-सभा’ नाम से किया है। एक पथर में तराशे हुए बीस-बीस फुट ऊंचे लगभग अस्सी खंभों से यह सभा बनी थी, जिसके अवशेष प्राचीन पाटलिपुत्र की खुदाई में प्राप्त हुए हैं। युधिष्ठिर की मणिमयी सभा का वर्णन उससे मिलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 6।10
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