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भारत सावित्री -वासुदेवशरण अग्रवाल
2. सभा पर्व
अध्याय : 5
जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए प्रज्ञा एक शक्ति मानी जाती थी। क्षत्रियों के लिए प्रज्ञा, गृहस्थों के लिए प्रज्ञा, प्रव्रजित लोगों के जीवन में प्रज्ञा, स्त्रियों की कर्त्तव्य-निष्ठा में प्रज्ञा, यहाँ तक कि वणिक और शिल्पी जनों के व्यवहार में भी प्रज्ञा का आवश्यक स्थान था। उस काल में प्रज्ञा एक पारिभाषिक शब्द ही बन गया था। महाभारत में यत्र-तत्र विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रज्ञा की व्याख्या पाई जाती है। लोक, परलोक, धर्म, धन, सुख, कर्त्तव्य, इन सब प्रकार के कर्त्तव्यों का समुचित निर्वाह करने की जो समन्वयात्मक विधि थी उसका ज्ञान और तदनुसार आचरण प्रज्ञा का लक्षण समझा जाता था। नारद ने प्रश्नमुख से राजाओं के लिए आवश्यक प्रज्ञा या बुद्धि की व्याख्या की है। यह प्रकरण किसी प्राचीन अर्थशास्त्र पर आश्रित जान पड़ता है। इसकी कई बातें कौटिलीय अर्थशास्त्र में भी मिलती हैं। कौटिल्या ने अपने ग्रन्थ में जिन प्राचीन आचार्यों का उल्लेख किया है, उनमें ‘पिशुन’ नामक एक आचार्य भी हैं। यह पिशुन ही नारद ज्ञात होते हैं। वस्तुतः मंत्रिपरिषद के कितने मंत्रियों के साथ राजा को मंत्रणा करनी चाहिए, इस विषय में पिशुन का मत और नारद-राजनीति का मत एक-सा है। पिशुन का कहना था कि न तो केवल प्रधानमंत्री से और न बहुत से मंत्रियों से ही राजा को मंत्रणा करना उचित है, किन्तु जो मंत्री जिस कर्म के विषय में मंत्र देने के योग्य हों, उनसे उस-उस विषय में मंत्रणा करनी चाहिए। यही मत सभापर्व के ‘कच्चिमंत्रयसे नैकः कच्चिन्न बहुभिः सह’[1] इस श्लोक में व्यक्त किया गया है। इस पर्व के अन्त में सन्निविष्ट फलश्रुति इस बात का संकेत है कि किसी प्राचीन अर्थशास्त्र से उठकर यह प्रकरण महाभारत के इस स्थल में सुरक्षित रह गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5।19
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