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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 103-104
भवन-निर्माण में सेमल, इमली, हिंताल (एक प्रकार का जंगली खजूर), नीम, सिंधुवार (निर्गुण्डी), गूलर, धतूरा, बरगद और रेंड- इनके अतिरिक्त अन्य वृक्षों की ही लकड़ी काम में लानी चाहिए। वस्तुतस्तु बुद्धिमान को लकड़ी, वज्रहस्त तथा शिला आदि का उपयोग न करना ही उचित है; क्योंकि ये स्त्री, पुत्र और धन के नाशक होते हैं- ऐसा कमलजन्मा ब्रह्मा का कथन है। वत्स! यह सब मैंने लोक-शिक्षा के लिए कहा है। अब तुम सुखपूर्वक जाओ और बिना काष्ठ के ही पुरी का निर्माण करो; क्योंकि उसके लिए यही शुभ मुहूर्त है। तब विश्वकर्मा गरुड़ के साथ श्रीहरि को नमस्कार करके वहाँ से चल दिये और समुद्र तट पर मनोहर वटवृक्ष के नीचे आकर उन्होंने गरुड़ के साथ वहाँ रात्रि में शयन किया। मुने! स्वप्न में गरुड़ को वह रमणीय द्वारकापुरी दिखायी पड़ी। परमात्मा श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से जो कुछ कहा था, वे सारे के सारे लक्षण उन्हें उस नगर में दृष्टिगोचर हुए। स्वप्न में वे सभी कारीगर विश्वकर्मा की और दूसरे बलवान गरुड़ पक्षी गरुड़ की हँसी उड़ा रहे थे। जागने पर उस पुरी को देखकर गरुड़ और विश्वकर्मा लज्जित हो गये। वह द्वारकापुरी अत्यंत रमणीय थी और सौ योजन में उसका विस्तार था। वह ब्रह्मा आदि देवताओं की पुरियों को पराभूत करके सुशोभित हो रही थीं; उसमें रत्नों की कारीगरी गयी थी, जिसके कारण उसके तेज से सूर्य ढक गये थे। श्रीनारायणजी कहते हैं- नारद! इसी समय ब्रह्मा, हर, पार्वती, अनन्त, धर्म, सूर्य, अग्नि, कुबेर, वरुण, वायु, यम, महेंद्र, चंद्र, रुद्र, आदित्य, वसु, दैत्य, गन्धर्व, किंनर आदि सब द्वारकापुरी देखने आये। आकाश दर्शनार्थियों के विमानों से छा गया। सबने मनोहर रत्मयी शोभायुक्त दिव्य द्वारका को देखा। वहाँ भगवान के स्मरण करते ही वसुदेव, देवकी, उग्रसेन, पाण्डवगण, नन्द, यशोदा, गोप-गोपी, विभिन्न देशों के राजा, संन्यासी, यति, अवधूत और ब्रह्मचारी आ गये। पञ्चवर्षीय दिगम्बर चारों सनकादि मुनि, दुर्वासा, कश्यप, वाल्मीकि, गौतम, बृहस्पति, शुक्र, भरद्वाज, अंगिरा, प्रचेता, पुलस्त्य, अगस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, मरीचि, शतानन्द, ऋष्यश्रृंग, विभाण्डक, पाणिनी, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, शुक, पराशर, च्यवन, गर्ग, सौभरि, गालव, लोमश, मार्कण्डेय, वामदेव, जैगीषव्य, सांदीपनि, वोढु, पञ्चशिख, मैं (नारायण), नर, विश्वामित्र, जरत्कारु, आस्तीक, परशुराम, वात्स्य, संवर्त, उतथ्य, जैमिनी, पैल, सुमन्त, व्यास, कपिल, श्रृंगी, उपमन्यु, गौरमुख, कच, द्रोण, अश्वत्थामा, कृपाचार्य आदि अपने असंख्य शिष्यों सहित पधारे; तथा भीष्म, कर्ण, शकुनि, भ्राताओं सहित दुर्योधन आदि सब आये। उग्रसेन आदि ने उन सबका स्वागत-सत्कार किया। देवताओं और मुनियों का स्वागत सत्कार करने पर उन लोगों ने उग्रसेन आदि को विविध उपहार दिये। तदनन्तर ब्राह्मणों को मणि, रत्न और वस्त्र आदि दान किये गये। उग्रसेन का राज्याभिषेक हुआ और सब लोग परमानन्दित होकर अपने-अपने घर लौटे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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