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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 93
श्रीनारायण कहते हैं- नारद! उद्धव द्वारा किए गये स्तवन को सुनकर राधिका की चेतना लौट आयी। तब वे विषादग्रस्त हो उद्धव को श्रीकृष्ण के सदृश आकारवाला देखकर बोलीं। श्रीराधिका ने कहा- वत्स! तुम्हारा क्या नाम है? किसने तुम्हें भेजा है? तुम कहाँ से आए हो? तुम्हारे यहाँ आने का क्या कारण है? यह सब मुझे बतलाओ। तुम्हारा सर्वांग श्रीकृष्ण की आकृति से मिलता-जुलता है; अतः मैं समझती हूँ कि तुम श्रीकृष्ण के पार्षद हो। अब तुम बलदेव और श्रीकृष्ण का कुशल समाचार वर्णन करो। साथ ही यह भी बतलाओ कि नन्द जी किस कारण से वहीं ठहरे हुए हैं? क्या श्रीकृष्ण इस रमणीय वृन्दावन में फिर आयेंगे? क्या मैं उनके पूर्णिमा के चंद्रमा के समान सुन्दर मुख का पुनः दर्शन करूँगी। तथा रासमण्डल में उनके साथ पुनः क्रीड़ा करूँगी? क्या सखियों के साथ पुनः जल विहार हो सकेगा? और क्या श्रीनन्दन के शरीर में पुनः चन्दन लगा पाऊँगी? उद्धव बोले- सुमुखि! मैं क्षत्रिय हूँ। मेरा नाम उद्धव है। तुम्हारा शुभ समाचार जानने के लिए परमात्मा श्रीकृष्ण ने मुझे भेजा है; इसीलिए मैं तुम्हारा पास आया हूँ। मैं श्रीहरि का पार्षद भी हूँ। इस समय श्रीकृष्ण बलदेव और नन्द जी कुशल से हैं। श्रीराधिका ने कहा- उद्धव! इस समय भी यमुनातट वही है, सुगन्धित-मलय पवन भी वही है, उनके केलि-कदम्बों का मूल भी वही है, उनका अभीष्ट पुण्यमय रमणीय वृन्दावन भी विद्यमान है। वही पुंसकोकिलों की बोली, चन्दन चर्चित शय्या, चारों प्रकार के भोज्य पदार्थ, सुन्दर मधुपान तथा दुरन्त एवं दुःखद पापात्मा मन्मथ भी वही मौजूद है। रासमण्डल में वे रत्नप्रदीप अभी भी जलते हैं, उत्तम मणियों का बना हुआ रति मन्दिर भी है ही, गोपांगनाओं का समूह भी विद्यमान है, पूर्णिमा का चंद्रमा भी सुशोभित हो रहा है और सुगन्धित पुष्पों द्वारा रचित चन्दनचर्चित शय्या भी है। रति-भोग के योग्य कर्पूर आदि से सुवासित पान का बीड़ा, सुगन्धित मालती की मालाएँ, श्वेत चँवर, दर्पण, जिसमें मोती और मणि जड़े हुए हैं ऐसे हीरे के मनोहर हार, अनेकों रमणीय उपकानन, सुन्दर क्रीड़ा-सरोवर, सुगन्धित पुष्पों की वाटिका, कमलों की मनोहर पंक्ति आदि सभी वैभव विद्यमान हैं (यह सब है); परंतु मेरे प्राणनाथ कहाँ हैं? हा कृष्ण! हा रमानाथ! हा मेरे प्राणवल्लभ! तुम कहाँ हो? मुझ दासी से कौन सा अपराध हो गया है? हुआ ही होगा; क्योंकि यह दासी तो पग-पगपर अपराध करने वाली है। इतना कहकर राधिका देवी पुनः मूर्च्छित हो गयीं। तब उद्धव ने पुनः उन्हें चैतन्य कराया। उनकी उस दशा को देखकर क्षत्रियश्रेष्ठ उद्धव को परम आश्चर्य हुआ। उस समय सात सखियाँ लगातार श्रीराधा पर श्वेत चँवर डुला रही थीं और असंख्य गोपियाँ विविध भाँति से उनकी सेवा में व्यस्त थीं। उनको इस अवस्था में पहुँची हुई देखकर उद्धव डरे हुए की भाँति पुनः विनयपूर्वक कानों को अमृत के समान लगने वाले परम प्रिय वचन बोले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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