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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 114
अनिरुद्ध और उषा का पृथक-पृथक स्वप्न में दर्शन, चित्रलेखा द्वारा अनिरुद्ध का अपहरण, अन्तःपुर में अनिरुद्ध और उषा का गान्धर्व विवाह श्रीनारायण कहते हैं- नारद! प्रद्युम्न श्रीकृष्ण के पुत्र थे, जो महान बल-पराक्रम से संपन्न थे। उनके पुत्र अनिरुद्ध थे, जो विधाता के अंश से उत्पन्न हुए थे। अनिरुद्ध एक दिन निर्जन स्थान में पुष्प और चंदन चर्चित पलंग पर सोये हुए थे। उन्होंने स्वप्न में खिले हुए पुष्पों के उद्यान में सुगन्धि कुसुम शय्या पर सोयी हुई एक अनन्य सुंदरी नवयुवती रमणी को मधुर-मधुर मुस्कराते देखा। तब अनिरुद्ध ने ‘मैं त्रिलोकीनाथ श्रीकृष्ण का पौत्र तथा कन्दर्प का पुत्र हूँ’- यो अपना परिचय देते हुए उस तरुणी से पतिरूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया। इस पर उस तरुणी ने यथाविधि विवाहित यज्ञपत्नी अर्थात अग्नि की साक्षी में जिससे विधिवत विवाह किया जाता है और कामवृत्ति को चरितारथ करने के लिए स्वीकृत नैमित्तिक पत्नी का शुभाशुभ भेद बतलाते हुए कहा- ‘मैं बाणासुर की कन्या हूँ, मेरा नाम उषा है। त्रैलोक्यविजयी बाण शंकरजी के किंकर हैं और शंकर लोकों के स्वामी हैं। नारी तीनों कालों में पराधीन रहती है, वह कभी स्वतंत्र नहीं होती। जो नारी स्वतंत्र होती है, वह नीच कुल में उत्पन्न हुई पुंश्चली होती है। पिता ही कन्या को योग्य वर के हाथ सौंपता है। कन्या वर की याचना नहीं करती- यही सनातन धर्म है। प्रभो! तुम मेरे योग्य हो और मैं तुम्हारे योग्य हूँ; अतः यदि तुम मुझे पाना चाहते हो तो बाणासुर, शम्भु अथवा सती पार्वती से मेरे लिए प्रार्थना करो।’ यों कहकर वह सती साध्वी सुन्दरी अन्तर्धान हो गयी। मुने! तब काम के वशीभूत हुए कामात्मज अनिरुद्ध की नींद सहसा टूट गयी। जागने पर उन्हें स्वप्न का ज्ञान हुआ। उस समय उनका अंतःकरण काम से व्यथित था और वे अपनी उस प्राणवल्लभा को न देखकर व्याकुल और अशान्त हो रहे थे। इस प्रकार पुत्र को उद्विग्न तथा विकल देखकर सती देवकी, रुक्मिणी तथा अन्यान्य सभी महिलाओं ने भगवान श्रीकृष्ण को सचित किया। मधुसूदन श्रीकृष्ण तो परिपूर्णतम तथा संपूर्ण तत्त्वों के ज्ञाता ही ठहरे, वे उनकी बात सुनकर ठठाकर हँस पड़े और बोले। श्रीभगवान ने कहा- महिलाओं! भगवती दुर्गा ने बाणासुर की कन्या का शीघ्र विवाह हो, इसके लिए अनिरुद्ध को स्वप्न में उसे दिखाया है। अब मैं बाणकन्या उषा को स्वप्न में अनिरुद्ध के दर्शन कराता हूँ। तुम लोग अनिरुद्ध के लिए कोई चिन्ता न करो। तदनन्तर श्रीकृष्ण के स्वप्न में उषा के सर्वांग सुंदर कोटि-कोटि-कंदर्प-दर्पहारी अनिरुद्ध के दर्शन कराये। स्वप्न टूटते ही उषा अत्यंत व्याकुल हो गयी। उसकी अन्यमनस्कता और विषण्णता देखकर सखी चित्रलेखा ने कहा- ‘कल्याणि! चेत करो। तुम्हारा यह नगर दुर्लङ्घ्य है। इसमें साक्षात शम्भु और शिवा वास करी हैं; तब भला, तुम्हें यह भयंकर भय कहाँ से उत्पन्न हो गया? सखी! शिव ही मंगलों के वासस्थान हैं; अतः उनका स्मरण मात्र कर लेने से सभी अरिष्ट दूर भाग जाते हैं और सर्वत्र मंगल ही होता है। दुर्गतिनाशिनी दुर्गा का ध्यान करने से सभी क्लेश नष्ट हो जाते हैं। वे सर्वमंगलमंगला हैं; अतः ध्यानकर्ता को मंगल प्रदान करती हैं।’ चित्रलेखा का कथन सुनकर सती उषा फूट-फूटकर रोने लगी और बाण शंकर के निकट ही विषाद करते हुए मूर्च्छित हो गये। यह देखकर शंकर, दुर्गा, कार्तिकेय और गणेश हँसने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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