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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 56-59
इंद्र के दर्प-भंग की कथा, नहुष की शची पर कुदृष्टि, शची का धर्म की बातें बताकर नहुष को समझाना और उसके न मानने पर बृहस्पति जी की शरण में जाकर उनका स्तवन करना सूत जी कहते हैं- तदनन्तर नारद जी के पूछने पर श्रीनारायण ने संक्षेप से कुछ लोगों के दर्प-भंग की घटनाएँ सुनायीं। फिर इन्द्र के दर्प-भृंग का वृत्तान्त बताते हुए बोले। श्री नारायण ने कहा- नारद! इस प्रकार सबके दर्प-भंग का प्रसंग कहा गया। अब इंद्र के दर्प भञ्जन की घटना विस्तारपूर्वक सुनो। एक समय इंद्र अपने ब्रह्मनिष्ठ गुरु बृहस्पति को आते देखकर भी सभा में दर्पवश अपने श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन से नहीं उठे। इसे गुरु ने अपना अपमान समझा और वे अत्यंत रुष्ट हो वहाँ से लौट गये। यद्यपि उनके मन में इंद्र के प्रति द्वेषभाव का उदय हुआ था, तथापि धर्मात्मा गुरु ने स्नेहवश कृपा करके उन्हें शाप नहीं दिया; परंतु शाप न मिलने पर भी इंद्र का घमंड चूर हो गया। यदि दूसरा कोई धर्म अथवा प्रेम का विचार करके किसी के भारी अपराध करने पर भी शाप न दे तो भी उसका वह अपराध अवश्य फल देता है। नारद! धर्मदेव ही उस पापी का नाश कर देते हैं। जो धर्मात्मा पुरुष जिस हिंसक या अपराधी को क्रोधपूर्वक शाप दे देता है, उसके उस शाप से अपराधी का अवश्य विनाश होता है; परंतु उस धर्मात्मा पुरुष का धर्म भी उसी मात्रा में क्षीण हो जाता है। इन्द्र ने जो गुरु का अपमान रूप अधर्म किया था, उसके कारण वे ब्रह्महत्या के भागी हुए। ब्रह्महत्या से डरे हुए इंद्र अपना राज्य छोड़कर एक पवित्र सरोवर को चले गये और उस सरोवर के कमल-नाल में निवास करने लगे। भारत वर्ष में भगवान विष्णु का वह सरोवर पुण्यमय तीर्थ और तपस्वीजनों के तप का श्रेष्ठ स्थान है। वहाँ ब्रह्महत्या नहीं जा सकती। उसी को पुराणवेत्ता पुरुष 'पुष्कर[1]' तीर्थ कहते हैं। इंद्र को राज्यभ्रष्ट हुआ देख धर्मात्मा हरिभक्त नरेश नहुष ने उनके राज्य पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया। एक दिन मनोहर अंगवाली सुंदरी शची, जिनके कोई संतान नहीं थी, पतिवियोग के कारण व्यथित हृदय से आकाशगंगा के तट पर जा रही थीं। उस समय नूतन यौवन से संपन्न तथा रत्नमय अलंकारों से विभूषित उन सुंदर दाँतवाली, परम कोमलांगी महासती शची पर नहुष की दृष्टि पड़ी। उन्हें देखते ही नहुष के मन में दूषित वृत्ति जाग उठी। उसने शची के समक्ष विनयपूर्वक अपनी कुत्सित वासना की पूर्ति के लिए प्रस्ताव रखा। इस पर शची ने कहा- बेटा! मेरी बात सुनो। महाराज! तुम प्रजा के भय का भञ्जन करने वाले हो। राजा समस्त प्रजा का पालक पिता होता है और वह सबकी भय से रक्षा करता है। इन दिनों महेंद्र राज्यलक्ष्मी से भ्रष्ट हो गये हैं और तुम स्वर्ग में राजा के पद पर प्रतिष्ठित हुए हो। जो राजा होता है, वह निश्चय ही प्रजाजनों का पालक पिता है। गुरुपत्नी, राजलक्ष्मी, देवपत्नी, पुत्रबधू, माता की बहिन (मौसी), पिता की बहिन (बूआ), शिष्य पत्नी, भृत्यपत्नी, मामी, पिता की पत्नी (माता और विमाता), भाई की पत्नी, सास, बहिन, बेटी, गर्भ में धारण करने वाली (जन्मदात्री) तथा इष्टदेवी- ये पुरुष की सोलह माताएं हैं[2]। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 47वें अध्याय में भी यह प्रसंग आया है। वहाँ 56 वें श्लोक में कहा गया है कि इंद्र ने मानसरोवर में प्रवेश किया था- 'विवेश मानससरः।' यहाँ पुष्कर तीर्थ में इंद्र का प्रवेश कहा गया है। यदि वहाँ के 'मानस सरः' का अर्थ केवल सरोवर मात्र हो तो दोनों स्थानों के वर्णन में एकता आ सकती है।
- ↑ यो राजा स पिता पाता प्रजानामेव निश्चितम्।।
गुरुपत्नी राजपत्नी देवपत्नी तथा वधूः। पित्रोः स्वसा शिष्यपत्नी भृत्यपत्नी च मातुली।।
पितृपत्नी भ्रातृपत्नी श्वश्रश्च भगिनी सुता। गर्भधात्रीष्टदेवी च पुंसः षोडश मातरः।। (59।54-56)
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