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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 86
केदार कन्या के वृत्तान्त का वर्णन नन्द जी ने पूछा- प्रभो! आपने स्त्रियों के प्रसंग से केदार-कन्या का प्रस्ताव करके कर्मविपाक का वर्णन किया। अब विस्तार पूर्वक केदार-कन्या का चरित्र बतलाइये। वह केदार कन्या कौन थी? भूपाल केदार कौन थे? किसके वंश में उनका जन्म हुआ था? यह विवरणसहित मुझे बतलाने की कृपा कीजिए। श्रीभगवान ने कहा- नन्द जी! सृष्टि के आदि में ब्रह्मा के पुत्र स्वायम्भुव मनु हुए। उनकी स्त्री का नाम शतरूपा था, जो स्त्रियों में धन्या और माननीया थी। उन दोनों के प्रियव्रत और उत्तानपाद नाम के दो पुत्र हुए। उत्तानपाद के पुत्र महायशस्वी ध्रुव हुए। ध्रुव के पुत्र नन्दसावर्णि और नन्दसावर्णि के पुत्र केदार हुए। स्वयं श्रीमान केदार विष्णु भक्त तथा सातों द्वीपों के अधिपति थे। उनकी रक्षा के लिए वे प्रतिदिन राजदरबार में सुंदर रूप-रंगवाली, सीधी, नौजवान गायें, जिनके सींगों में सोना मढ़ा गया था, ब्राह्मणों को दान करते थे। प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक ब्राह्मणों को भोजन कराते थे; दुःखियों और भिक्षुकों को यथोचित धन देते थे और स्वयं राजा विष्णु-भक्तिपरायण हो इंद्रियों को काबू में करके फल-मूल का आहार करते हुए सब कुछ मुझे समर्पित करके रात दिन मेरा जप करते थे। तदन्तर लक्ष्मी अपनी कला से कामिनियों में श्रेष्ठ कमलनयनी कन्या के रूप में उनके यज्ञकुण्ड से प्रकट हुईं। उनके शरीर पर अग्नि में तपाकर शुद्ध किया हुआ वस्त्र था और वे रत्नों के आभूषणों से विभूषित थीं। उन्होंने राजा से यों कहा- ‘महाराज! मैं आपकी कन्या हूँ।’ तब राजा ने भक्तिपूर्वक उसकी भलीभाँति पूजा की और उसे अपनी पत्नी को समर्पित करके वे चुपचाप खड़े हो गये। तदनन्तर वह कन्या हर्षपूर्वक विनती करके और माता-पिता की आज्ञा ले तपस्या करने के लिए यमुना तटपर स्थित रमणीय पुण्यवन को चली गयी। वह वृन्दा का तपोवन था; इसीलिए उसे ‘वृन्दावन’ कहते हैं। वहाँ तपस्या करके उसने वरों में श्रेष्ठ मुझको वर रूप से वरण किया। तब ब्रह्मा ने उसे वरदान दिया कि ‘कुछ काल के पश्चात तू कृष्ण को प्राप्त करेगी।’ फिर ब्रह्मा ने उसकी परीक्षा के लिए धर्म को एक परम सुंदर तरुण ब्रह्मा के रूप में उसके पास भेजा। वहाँ जाकर धर्म ने कहा- मनोहरे! तुम किसकी कन्या हो? तुम्हारा क्या नाम है? यहाँ एकान्त में तुम क्या कर रही हो? यह मुझे बतलाओ। सुंदरि! तुम क्या चाहती हो और किसलिए यह तपस्या कर रही हो? तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मन में जो अभिलाषा हो, वह वरदान माँगो। वृन्दा बोली- विप्रवर! मैं केदारराज की कन्या हूँ, मेरा नाम वृन्दा है। मैं इस वृन्दावन में वास करती हुई एकान्त में तपस्या कर रही हूँ और श्रीहरि को अपना पति बनाने की चिन्ता में हूँ। अतः ब्राह्मण! यदि तुम्हारे में ऐसा वरदान देने की शक्ति हो तो मेरा अभीष्ट वर मुझे प्रदान करो; अन्यथा यदि तुम असमर्थ हो तो अपने रास्ते जाओ। तुम्हें यह सब पूछने से क्या लाभ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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