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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 35-36
गंगा-स्नान से ब्रह्मा जी को मिले हुए शाप की निवृत्ति, गोलोक में ब्रह्मा जी को भारती की प्राप्ति, भारती सहित ब्रह्मा का अपने लोक में प्रवेश, भगवान शिव के दर्पभंग की कथा, वृकासुर से उनकी रक्षा, श्री राधिका के पूछने पर श्रीकृष्ण के द्वारा शिव के तत्त्व-रहस्य का निरूपण भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं– प्रिये! तदनन्तर सबने गंगा को देखकर मेरी माया मानी। उस समय नारायण ने कृपापूर्वक ब्रह्मा जी से कहा। श्री नारायण बोले– चतुर्मुख! उठो, जाओ, तुम्हारा कल्याण होगा। तुम्हें शाप लगा है; अतः मेरी आज्ञा से इस गंगा में स्नान करके पवित्र हो जाओ। यद्यपि तुम स्वयं पवित्र हो और वे समस्त तीर्थ तुम वैष्णव पति का स्पर्श प्राप्त करना चाहते हैं, तथापि प्रकृति की अवहेलना करने (हँसी उड़ाने)– से तुम्हें शाप मिला है। अहंकार सभी के लिये पापों का बीज और अमंगलकारी होता है। तुम शीघ्र मेरे परात्पर धाम गोलोक को जाओ। वहाँ प्रकृति की अंशरूपा मंगलदायिनी भारती को पाओगे। कल्याण-सृष्टि की बीजरूपिणी प्रकृति को अपनाओ। अहो! तुमने एक कल्प तक तप किया है तो भी इस समय एक अप्सरा के शाप से कोई भी तुम्हारा मन्त्र को नहीं ग्रहण करते हैं। अन्य देवताओं की पूजा में भी तुम्हारी ही पूजा होगी; क्योंकि तुम्हीं जगत के धारण-पोषण करने वाले, स्वात्माराम, सर्वरूपी तथा सब ओर समस्त देहों में पूजास्वरूप हो। उस समय मेरी आज्ञा मानकर जगद्गुरु ब्रह्मा ने गंगा के जल में स्नान किया और मुझे प्रणाम करके वे शीघ्र ही गोलोक को चले गये। फिर समस्त देवता और मुनि भी प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने स्थान को लौट गये। वे बारंबार मेरे परम निर्मल यश का गान कर रहे थे। ब्रह्मा जी ने गोलोक में जाकर मेरे मुखारविन्द से निर्गत, सम्पूर्ण विद्याओं की अधिदेवी सती भारती को प्राप्त किया। वागीश्वरी भारती को पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। उन त्रिभुवनमोहिनी देवी को प्राप्त करके मुझे प्रणाम करने के अनन्तर वे लौट आये। ब्रह्मलोक के निवासियों ने उन भारती देवी को देखा। वे कौतूहल से भरी हुई, परम सुन्दरी, रमणीया तथा श्वेतवर्णा थीं। उनके मुख पर मन्द मुस्कान की प्रभा फैल रही थी। मुख शरद ऋतु के चन्द्रमा को लज्जित कर रहा था। नेत्र शरद् ऋतु के प्रफुल्ल कमलों के समान जान पड़ते थे। दीप्तिमान ओष्ठ और अधरपल्लव पके बिम्बफल की प्रभा को छीन लेते थे। मुक्तापंक्ति की शोभा को तिरस्कृत करने वाली दन्तपंक्तियों से उनके मुख की मनोहरता बढ़ गयी थी। रत्ननिर्मित केयूर-कंगन हाथों की और रत्नों के नूपुर चरणों की शोभा बढ़ाते थे। रत्नमय युगल कुण्डलों से कानों के नीचे के भाग झलमला रहे थे। रत्नेन्द्रसार निर्मित हार से उनका वक्षःस्थल अत्यन्त प्रकाशमान दिखायी देता था। वे अग्नि शुद्ध सूक्ष्म वस्त्र धारण करके नूतन यौवन से सम्पन्न एवं अत्यन्त कमनीय दृष्टिगोचर होती थीं। उनके दो हाथों में वीणा और पुस्तक तथा अन्य हाथों में व्याख्या की मुद्रा देखी जाती थी। ब्रह्मलोक निवासियों ने उन पर प्रिय वस्तुएँ निछावर करके परम मंगलमय उत्सव मनाया और ब्रह्मा तथा भारती को वे सानन्द पुरी के भीतर ले गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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