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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 7
श्रीकृष्ण जन्म-वृत्तांत-आकाशवाणी से प्रभावित हो देवकी के वध के लिये उद्यत हुए कंस को वसुदेव जी का समझाना, कंस द्वारा उसके छः पुत्रों का वध, सातवें गर्भ का संकर्षण, आठवें गर्भ में भगवान का आविर्भआव-देवताओं द्वारा स्तुति, भगवान का दिव्य रूप में प्राकट्य, वसुदेव द्वारा उनकी स्तुति, भगवान का पूर्वजन्म के वरदान का प्रसंग बताकर अपने को व्रज में ले जाने की बात बता शिशुरूप में प्रकट होना, वसुदेव जी का व्रज में यशोदा के शयनगृह में शिशु को सुलाकर नन्द-कन्या को ले आना, कंस का उसे मारने को उद्यत होना, परंतु वसुदेव जी तथा आकाशवाणी के कथन पर विश्वास करके कन्या को दे देना, वसुदेव-देवकी का सानन्द घर को लोटना नारद जी ने पूछा– महाभाग! श्रीकृष्ण का जन्म-वृत्तांत महान पुण्यप्रद और उत्तम है। वह जन्म, मृत्यु और जरा का नाश करने वाला है। अतः आप इस प्रसंग को कुछ विस्तार के साथ बताइये। वसुदेव किसके पुत्र थे और देवकी किसकी कन्या थीं? देवकी और वसुदेव पूर्वजन्म में कौन थे? उनके विवाह का वृत्तांत भी बताइये। अत्यन्त क्रूर-स्वभाव वाले कंस ने देवकी के छः पुत्रों का वध क्यों किया? तथा श्रीहरि का जन्म किस दिन हुआ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ। आप कृपापूर्वक कहिये। श्रीनारायण ने कहा–महर्षि कश्यप ही वसुदेव हुए थे और देवमाता अदिति देवकी के रूप में अवतीर्ण हुई थीं। पूर्वजन्म के पुण्य के फलरूप से ही उन्होंने श्रीहरि को पुत्ररूप से प्राप्त किया था। देवमीढ़ द्वारा मारिषा के गर्भ से महान पुरुष वसुदेव का जन्म हुआ। उनके जन्मकाल में अत्यन्त हर्ष से भरे हुए देव समुदाय ने आनक और दुन्दुभि नामक बाजे बजाये थे। इसलिये श्रीहरि के जनक वसुदेव को प्राचीन संत-महात्मा ‘आनकदुदुम्भि’ कहते हैं। यदुकुल में आहुक के पुत्र श्रीमान देवक हुए थे, जो ज्ञान के समुद्र कहे जाते हैं। उन्हीं की पुत्री देवकी थीं। यदुकुल के आचार्य गर्ग ने वसुदेव के साथ देवकी का विधिपूर्वक यथोचित विवाह सम्बन्ध कराया था। देवक ने विवाह के लिये बहुत समान एकत्र किये थे। उन्होंने उत्तम लग्न में अपनी पुत्री देवकी को वसुदेव के हाथ में समर्पण कर दिया। नारद! देवक ने दहेज में सहस्रों घोड़े, सहस्रों स्वर्णपात्र, वस्त्राभूषणों से विभूषित सैकड़ों सुन्दरी दासियाँ, नाना प्रकार के द्रव्य, भाँति-भाँति के रत्न, उत्तम मणि, हीरे तथा रत्नमय पात्र दिये थे। देवक की कन्या श्रेष्ठ रत्नमय आभूषणों से विभूषित, सैकड़ों चन्द्रमाओं के समान कान्तिमती, त्रिभुवनमोहिनी, धन्य, मान्य तथा श्रेष्ठ युवती थी। रूप और गुण की निधि थी। उसके मुख पर मन्द मुस्कान की छटा छायी रहती थी। उसे रथ पर बिठाकर वसुदेव जब प्रस्थान करने लगे, तब बहिन के विवाह में हर्ष से भरा हुआ कंस भी उसके साथ चला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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