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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 111
राधिका द्वारा ‘राम’ आदि भगवन्नामों की व्युत्पत्ति और उनकी प्रशंसा तथा यशोदा के पूछने पर अपने ‘राधा’ नाम की व्याख्या करना राधिका ने कहा- यशोदे! स्त्रीजाति तो वस्तुतः यों ही अबला, मूढ़ और अज्ञान में तत्पर रहने वाली होती है; तिस पर भी श्रीकृष्ण के विरह से मेरी चेतना निरन्तर नष्ट हुई रहती है। ऐसी दशा में पाँच प्रकार के ज्ञानों में, जो सर्वोत्तम भक्त्यात्मक ज्ञान है, उसके विषय में मैं क्या कह सकती हूँ? तथापि जो कुछ तुमसे कहती हूँ, उसे सुनो। यशोदे! तुम इन सारे नश्वर पदार्थों का परित्याग करके पुण्यक्षेत्र भारत में स्थित रमणीय वृन्दावन में जाओ। वहाँ निर्मल यमुनाजल में त्रिकाल स्नान करके सुकोमल चंदन से अष्टदल कमल बनाकर शुद्ध मन से गर्ग-प्रदत्त ध्यान द्वारा परमानन्द स्वरूप श्रीकृष्ण का भलीभाँति पूजन करो और आनन्दपूर्वक उनके परमपद में लीन हो जाओ। सति! सौ पूर्व पुरुषों के साथ अपने कर्म का उच्छेद करके सदा वैष्णवों के ही साथ वार्तालाप करो। भक्त अग्नि की ज्वाला, पिंजरे में बंद होना, काँटों में रहना और विष खाना स्वीकार करता है, परंतु हरिभक्ति रहित लोगों का संग ठीक नहीं समझता; क्योंकि वह नाश का कारण होता है। भक्तिहीन पुरुष स्वयं तो नष्ट होती ही है, साथ ही दूसरे की बुद्धि में भेद उत्पन्न कर देता है। भक्त के संग से तथा हरिकथालापरूपी अमृत के सिञ्चन से भक्तिरूपी वृक्ष का अंकुर बढ़ता है; किंतु भक्तिहीनों के साथ वार्तालापरूपी प्रदीप्ताग्नि की ज्वाला की एक कला के स्पर्श से भी वह अंकुर सूख जाता है; फिर सींचने से ही उसकी वृद्धि होती है। इसलिए सावधान होकर भक्तहीनों के संग का उसी प्रकार परित्याग कर देना चाहिए, जैसे मनुष्य कालसर्प को देखकर डर के मारे दूर भाग जाते हैं। यशोदे! अपने ऐश्वर्यशाली पुत्र का, जो साक्षात परमात्मा और ईश्वर हैं, उत्तम भक्ति के साथ भजन करो। उनके राम, नारायण, अनन्त, मुकुन्द, मधुसूदन, कृष्ण, केशव, कंसारे, हरे, वैकुण्ठ, वामन- इन ग्यारह नामों को जो पढ़ता अथवा कहलाता है, वह सहस्रों कोटि जन्मों के पापों से मुक्त हो जाता है[1]। ‘रा’ शब्द विश्ववाची और ‘म’ ईश्वरवाचक है, इसलिए जो लोकों का ईश्वर है उसी कारण वह ‘राम’ कहा जाता है। वह रमा के साथ रमण करता है इसी कारण विद्वानलोग उसे ‘राम’ कहते हैं। रमा का रमण स्थान होने के कारण राम-तत्त्ववेत्ता ‘राम’ बतलाते हैं। ‘रा’ लक्ष्मीवाची और ‘म’ ईश्वरवाचक है; इसलिए मनीषीगण लक्ष्मीपति को ‘राम’ कहते हैं। सहस्रों दिव्य नामों के स्मरण से जो फल प्राप्त होता है, वह फल निश्चय ही ‘राम’ शब्द के उच्चारणमात्र से मिल जाता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वरं हुतवहज्वालां भक्तोवाञ्छति पिञ्जरम्। वरं च कण्टके वासं वरं च विषभक्षणम्।
हरिभक्तिविहीनानां न संग नाशकारणम्। स्वयं नष्टों भक्तिहीनो बुद्धिभेदं करोति च।।
अंकुरों भक्तिवृक्षस्य भक्तसंगेन वर्धते। परं हरिकथालापपीयूषासेचनेन च।।
अभक्तालापदीप्ताग्निज्वालायाः कलयापि च। अंकुरं शुष्कतां याति पुनः सेकेन वर्धते।।
तदस्मादभक्तसंग च सावधानः परित्यज। यथा दृष्ट्वा कालसर्पं नरो भीतः पलायते।।
यशोदे च प्रयत्नेन स्वात्मनः पुत्रमीश्वरम्। भजस्व परया भक्त्या परमात्मानमीश्वरम्।।
राम नारायणानन्त मुकुन्द मधुसूदन। कृष्ण केशव कंसारे हरे वैकुण्ठ वामन।।
इत्येकादश नामानि पठेद् वा पाठयेदिति। जन्मकोटिसहस्राणां पातकादेव मुच्यते।। (111।11-17) - ↑ राशब्दो विश्ववचनो मश्चापीश्वरवाचकः। विश्वानामीश्वरो यो हि तेन रामः प्रकीर्तितः।।
रमते रमया सार्धं तेन रामं विदुर्बुधाः। रमाणां रमणस्थानं रामं रामविदो विदुः।।
राश्चेति लक्ष्मीवचनो मश्चापीश्वरवाचकः। लक्ष्मीपतिं गतिं रामं प्रवदन्ति मनीषिणः।।
नाम्ना सहस्रं दिव्यानां स्मरणे यत्फलं लभेत्। तत्फलं लभते नूनं रामोच्चारणमात्रतः।-(111।18-21)
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