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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 34
गंगा की उत्पत्ति तथा महिमा श्रीकृष्ण कहते हैं– प्रिये! इसी बीच में भगवान शंकर वहाँ उपस्थित हुए। उनके मुख पर मुस्कराहट थी। वे सारे अंगों में विभूति लगाये वृषभराज नन्दिकेश्वर की पीठ पर बैठे थे। व्याघ्रचर्म का वस्त्र, सर्पमय, यज्ञोपवीत, सिर पर सुनहरे रंग की जटा का भार, ललाट में अर्धचन्द्र, हाथों में त्रिशूल, पट्टिश तथा उत्तम खट्वांग धारण किये, श्रेष्ठ रत्नों के सारतत्त्व से निर्मित स्वर-यन्त्र लिये भगवान शिव शीघ्र ही वाहन से उतरे और भक्तिभाव से मस्तक झुका कमलाकान्त को प्रणाम करके उनके वामभाग में बैठे। फिर इन्द्र आदि समस्त देवता, मुनि, आदित्य, वसु, रुद्र, मनु, सिद्ध और चारण वहाँ पधारे। उन सबने पुरुषोत्तम की स्तुति की। उस समय उनके सारे अंग पुलकित हो रहे थे। फिर समस्त देवताओं ने सिर झुकाकर भगवान शिव को प्रणाम किया। तदनन्तर स्वर-यन्त्र लिये भगवान शंकर ने सुमधुर तालस्वर के साथ संगीत आरम्भ किया। प्रिये! उसमें हम दोनों के गुणों तथा राससम्बन्धी सुन्दर पदों का गान होने लगा। मन को मोह लेनेवाले सामयिग राग[1], कण्ठ की एकतानता, एक मनोहर मान[2], गुरु-लघु के क्रम से पद-भेद-विराम, अतिदीर्घ गमक[3] तथा मधुर आनन्द के साथ उन्होंने प्रेमपूर्वक स्वयं-निर्मित ऐसा संगीत छेड़ा, जो संसार में अत्यन्त दुर्लभ है। उस समय भगवान शिव के सम्पूर्ण अंगों में रोमांच हो आया था और वे नेत्रों से बारंबार आँसू बहाते थे। प्रिये! उस संगीत को सुनने मात्र से वहाँ बैठे हुए मुनि तथा देवता मूर्च्छित एवं बेसुध हो द्रव (जल)– रूप हो गये। श्रीहरि के पार्षदों की तथा ब्रह्मा जी की भी यही दशा हुई। भगवान नारायण, लक्ष्मी तथा गान करने वाले स्वयं शिव भी द्रवरूप हो गये। प्राणेश्वरि! उस समय वैकुण्ठधाम को जल से पूर्ण हुआ देख मुझे शंका हुई। तब वहाँ जाकर मैंने उन सब देवता आदि की मूर्तियों (शरीरों)– का पूर्ववत निर्माण किया। उनके वैसे ही रूप, वैसे ही अस्त्र-शस्त्र तथा वैसे ही वाहन-भूषण बनाये। उनके स्वभाव, मन तथा विषय-वासनाएँ भी पूर्ववत थीं। तदनन्तर उस जलराशि के लिये वैकुण्ठ के चारों ओर स्थान बनाया; फिर उसकी अधिष्ठात्री देवी (गंगा) अपने उस वासस्थान में आयीं। समस्त देवताओं के शरीरों से उत्पन्न हुई वह दिव्य जलराशि ही देवनदी गंगा के नाम से प्रख्यात हुई। वह मुमुक्षुओं को मोक्ष और भक्तों की हरिभक्ति प्रदान करने वाली है। उसका स्पर्श करके आयी हुई वायु के सम्पर्क से भी पापियों के करोड़ों जन्मों के नानाविध पाप तत्काल नष्ट हो जाते हैं। प्राणेश्वरि! देवनदी के साक्षात दर्शन तथा स्पर्श का क्या फल होगा– यह मैं भी नहीं जानता; फिर उसके जल में स्नान करने से प्राप्त होने वाले पुण्य के विषय में तो कहना ही क्या है? उसकी महिमा का सम्यक निरूपण असम्भव है। पृथ्वी पर ‘पुष्कर’ को सब तीर्थों से उत्तम बताया गया है। वेदों ने उसे सर्वश्रेष्ठ कहा है; परंतु वह भी इस (गंगा)– की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं है। राजा भगीरथ इस देवनदी को भूतल पर लाये थे, इसलिये यह ‘भागीरथी’ नाम से प्रसिद्ध हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ संगीत में षड्ज आदि स्वरों, उनके वर्णों और अंगों से युक्त वह ध्वनि जो किसी विशिष्ट ताल में बैठायी हुई हो और जो मनोरंजन के लिये गायी जाती हो। संगीत-शास्त्र के भारतीय आचार्यों ने छः राग माने हैं; परंतु इन रागों के नामों के सम्बन्ध में बहुत मतभेद हैं। भारत और हनुमत के मत से ये छः राग इस प्रकार हैं– भैरव, कौशिक (मालकोस), हिंडोल, दीपक, श्री और मेघ। सोमेश्वर और ब्रह्मा के मत से इन छः रागों के नाम इस प्रकार हैं– श्री, वसंत, पंचम, भैरव, मेघ और नटनारायण। नारद-संहिता का मत है कि मालव, मल्लार, श्री, वसंत, हिंडोल और कर्णाट– ये छः राग हैं। परंतु आजकल प्रायः ब्रह्मा और सोमेश्वर का मत ही अधिक प्रचलित है। स्वर-भेद से राग तीन प्रकार के कहे गये हैं– 1. सम्पूर्ण, जिसमें सातों स्वर लगते हों; 2. षाड़व, जिसमें केवल छः स्वर लगते हों और कोई एक स्वर वर्जित हो; और 3. ओड़व, जिसमें केवल पाँच स्वर लगते हों और दो स्वर वर्जित हों। मतंग के मत से रागों के ये तीन भेद हैं– 1. शुद्ध, जो शास्त्रीय नियम तथा विधान के अनुसार हो और जिसमें किसी दूसरे राग की छाया न हो; 2. सालंक या छायालग, जिसमें किसी दूसरे राग की छाया भी दिखायी देती हो, अथवा जो दो रागों के योग से बना हो; 3. संकीर्ण, जो कई रागों से मेल से बना हो। संकीर्ण को ‘संकर राग’ भी कहते हैं। ऊपर जिन छः रागों के नाम बतलाये गये हैं, उनमें से प्रत्येक राग का एक निश्चित सरगम या स्वर-क्रम है। उसका एक विशिष्ट स्वरूप माना गया है। उसके लिये एक विशिष्ट ऋतु, समय और पहर आदि निश्चित हैं। उसके लिये कुछ रस नियत हैं तथा अनेक ऐसी बातें भी कही गयी हैं, जिनमें से अधिकांश केवल कल्पित ही हैं। जैसे, माना गया है कि अमुक राग का अमुक द्वीप या वर्ष पर अधिकार है, उसका अधिपति अमुक ग्रह है, आदि। इसके अतिरिक्त भरत और हनुमत के मत से प्रत्येक राग की पाँच-पाँच रागिनियाँ और सोमेश्वर आदि के मत से छः-छः रागिनियाँ हैं। इस अन्तिम मत के अनुसार प्रत्येक राग के आठ-आठ पुत्र तथा आठ-आठ पुत्रवधुएँ भी हैं। 4. यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो राग और रागिनी में कोई अन्तर नहीं है। जो कुछ अन्तर है, वह केवल कल्पित है। हाँ, रागों में रागिनियों की अपेक्षा कुछ विशेषता और प्रधानता अवश्य होती है और रागिनियाँ उनकी छाया से युक्त जान पड़ती हैं; अतः हम रागिनियों को रागों के अवान्तर भेद कह सकते हैं। इसके सिवा और भी बहुत-से राग हैं, जो कई रागों की छाया पर अथवा मेल से बनते हैं और ‘संकर राग’ कहलाते हैं। शुद्ध रागों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में लोगों का विश्वास है कि जिस प्रकार श्रीकृष्ण की वंशी के सात छेदों में से सात स्वर निकलते हैं, उसी प्रकार श्रीकृष्ण जी की 1608 गोपिकाओं के गाने से 1608 प्रकार के राग उत्पन्न हुए थे और उन्हीं में से बचते-बचते अन्त में केवल छः राग और उनकी 30 या 36 रागिनियाँ रह गयीं। कुछ लोगों का यह भी मत है कि महादेव जी के पाँच मुखों से पाँच राग (श्री, वसंत, भैरव, पंचम और मेघ) निकले हैं और पार्वती के मुख से छठा ‘नटनारायण’ राग निकला है।
- ↑ संगीत-शास्त्र के अनुसार ताल में का विराम, जो सम, विषम, अतीत और अनागत– चार प्रकार का होता है।
- ↑ संगीत में श्रुति या स्वर पर से दूसरी श्रुति या स्वर पर जाने का एक प्रकार। इसके सात भेद हैं– कम्पित, स्फुरित, लीन, भिन्न, स्थविर, आहत और आन्दोलित। पर साधारणतः लोग गाने में स्वर के कँपाने को ही गमक कहते हैं। तबले की गम्भीर आवाज को भी गमक कहते हैं।- (हिंदी-शब्दसागर से संकलित)
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