ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 42-43
परशुराम का शिव के अन्तःपुर में जाने के लिये गणेश से अनुरोध, गणेश का उन्हें समझाना, न मानने पर उन्हें स्तम्भित करके अपनी सूँड़ में लपेटकर सभी लोकों में घुमाते हुए गोलोक में श्रीकृष्ण का दर्शन कराकर भूतल पर छोड़ देना, होश आने पर परशुराम का कुपित होकर गणेश पर फरसे का प्रहार करना, गणेश का एक दाँत टूट जाना, देवलोक में हाहाकार, पार्वती का रुदन और शिव से प्रार्थना परशुराम ने कहा– भाई! मैं ईश्वर को प्रणाम करने के लिये अन्तःपुर में जाऊँगा और भक्तिपूर्वक माता पार्वती को नमस्कार करके तुरंत ही घर को लौट जाऊँगा। जो सगुण-निर्गुण, भक्तों के लिये अनुग्रह के मूर्तरूप, सत्य, सत्यस्वरूप, ब्रह्मज्योति, सनातन, स्वेच्छामय, दयासिन्धु, दीनबन्धु, मुनियों के ईश्वर, आत्मा में रमण करने वाले, पूर्णकाम, व्यक्त-अव्यक्त, परात्पर, पर-अपर के रचयिता, इन्द्रस्वरूप, सम्मानित, पुरातन, परमात्मा, ईशान, सबके आदि, अविनाशी, समस्त मंगलों के मंगलस्वरूप, सम्पूर्ण मंगलों के कारण, सभी मंगलों के दाता, शान्त, समस्त ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाले, परमोत्कृष्ट, शीघ्र ही संतुष्ट होने वाले, प्रसन्न मुखवाले, शरण में आये हुए की रक्षा करने वाले, भक्तों के लिये अभयप्रद, भक्तवत्सल और समदर्शी हैं, जिनसे मैंने नाना प्रकार की विद्याओं और अनेक प्रकार के परम दुर्लभ शस्त्रों को प्राप्त किया है; उन जगदीश्वर गुरु के इस समय मैं दर्शन करना चाहता हूँ। यों कहकर परशुराम गणपति के आगे खड़े हो गये। इस पर श्री गणेश जी ने उनको बहुत तरह से समझाया कि इस समय भगवान शंकर और माता जी अन्तःपुर में हैं। आपको वहाँ नहीं जाना चाहिये, पर परशुराम जी हठ करते ही रहे। उन्होंने अनेकों युक्तियों द्वारा अपना अंदर जाना निर्दोष बतलाया। यों परस्पर दोनों में वाद-विवाद होता रहा। गणेश जी विनयपूर्वक ही परशुराम को रोकते रहे, पर जब परशुराम ने बलपूर्वक जा चाहा तो गणेश जी ने रोक दिया। तब परस्पर में वाग्युद्ध और करताड़न होने लगा। अन्त में परशुराम ने गणेश जी पर अपना फरसा उठा लिया। तब कार्तिकेय ने बीच में आकर उन्हें समझाया। परशुराम ने गणेश जी को धक्का दे दिया, वे गिर पड़े। फिर उठकर उन्होंने परशुराम को फटकारा। इस पर परशुराम ने पुनः कुठार उठा लिया। तब गणेश जी ने अपनी सूँड़ को बहुत लंबा कर लिया और उसमें परशुराम को लपेटकर वे घुमाने लगे। जैसे छोटे से साँप को गरुड़ ऊपर उठा लेता है, वैसे ही अपने योगबल से शिवपुत्र गणेश ने उनको उठाकर स्तम्भित कर दिया और सप्तद्वीप, सप्तपर्वत, सप्तसागर, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, जनलोक, तपोलोक, ध्रुवलोक, गौरीलोक, शम्भुलोक उनको दिखा दिये। तदनन्तर उन्हें गम्भीर समुद्र में फेंक दिया। जब वे तैरने लगे तो पुनः पकड़कर उठा लिया और घुमाते हुए वैकुण्ठ दिखलाकर फिर गोलोकधाम में भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन कराये। उस समय भगवान रत्नाभरणों से विभूषित हो रत्ननिर्मित सिंहासन पर आसीन थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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