ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड : अध्याय 22
श्रीहरि का इन्द्र को लक्ष्मी-कवच तथा लक्ष्मी-स्तोत्र प्रदान करना नारद जी ने पूछा– तपोधन! लक्ष्मीपति श्रीहरि ने प्रकट होकर इन्द्र को महालक्ष्मी का कौन-सा स्तोत्र और कवच प्रदान किया था, वह मुझे बतलाइये। नारायण ने कहा– नारद! जब पुष्कर में तपस्या करके देवराज इन्द्र शान्त हुए, तब उनके क्लेश को देखकर स्वयं श्रीहरि वहीं प्रकट हुए। उन हृषीकेश ने इन्द्र से कहा–‘तुम अपने इच्छानुसार वर माँग लो।’ तब इन्द्र ने लक्ष्मी को ही वररूप से वरण किया और श्रीहरि ने हर्षपूर्वक उन्हें दे दिया। वर देने के पश्चात हृषीकेश ने जो हितकारक, सत्य, साररूप और परिणाम में सुखदायक था, ऐसा वचन कहना आरम्भ किया। श्रीमधुसूदन बोले– इन्द्र! (लक्ष्मी-प्राप्ति के लिये) तुम लक्ष्मी-कवच ग्रहण करो। यह समस्त दुःखों का विनाशक, परम ऐश्वर्य का उत्पादक और सम्पूर्ण शत्रुओं का मर्दन करने वाला है। पूर्वकाल में जब सारा संसार जलमग्न हो गया था, उस समय मैंने इसे ब्रह्मा को दिया था। जिसे धारण करके ब्रह्मा त्रिलोकी में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण ऐश्वर्यों से सम्पन्न हो गये थे। इसी के धारण से सभी मनु लोग सम्पूर्ण ऐश्वर्यों के भागी हुए थे। देवराज! इस सर्वैश्वर्यप्रद कवच के ब्रह्मा ऋषि हैं, पंक्ति छन्द है, स्वयं पद्मालया लक्ष्मी देवी हैं और सिद्धैश्वर्यप्रद के जपों में इसका विनियोग कहा गया है। इस कवच के धारण करने से लोग सर्वत्र विजयी होते हैं। पद्मा मेरे मस्तक की रक्षा करें। हरिप्रिया कण्ठ की रक्षा करें। लक्ष्मी नासिका की रक्षा करें। कमला नेत्र की रक्षा करें। केशवकान्ता केशों की, कमलालया कपाल की, जगज्जननी दोनों कपोलों की और सम्पत्प्रदा सदा स्कन्ध की रक्षा करें। ‘ऊँ श्री कमलवासिन्यै स्वाहा’ मेरे पृष्ठभाग का सदा पालन करे! ‘ऊँ श्री पद्मालयायै स्वाहा’ वक्षःस्थल को सदा सुरक्षित रखे। श्री देवी को नमस्कार है, वे मेरे कंकाल तथा दोनों भुजाओं को बचावें। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं लक्ष्म्यै नमः’ चिरकाल तक निरन्तर मेरे पैरों का पालन करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं नमः पद्मायै स्वाहा’ नितम्ब भाग की रक्षा करे। ‘ऊँ श्री महालक्ष्म्यै स्वाहा’ मेरे सर्वांग की सदा रक्षा करे। ‘ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं महालक्ष्म्यै स्वाहा’ सब ओर से सदा मेरा पालन करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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