ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 52
शेष कृतघ्नों के कर्मफलों का विभिन्न मुनियों द्वारा प्रतिपादन पार्वती ने पूछा– प्रभो! अन्य कृतघ्नों को जिस-जिस फल की प्राप्ति होती है, उसके विषय में उन वेद-वेदांग के पारंगत विद्वानों ने क्या कहा? श्रीमहेश्वर बोले– प्रिये! राजेन्द्र सुयज्ञ के प्रश्न करने पर उन सब मुनियों में महान ऋषि नारायण ने प्रवचन देना आरम्भ किया। नारायण ने कहा– भूपाल! जो अपनी या दूसरों की दी हुई ब्राह्मणवृत्ति का अपहरण करता है, उसे कृतघ्न समझना चाहिये। उसे जो फल मिलता है, उसको सुनो। जिनकी जीविका छिन जाती है, उन ब्राह्मणों के आँसुओं से धरती के जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने सहस्र वर्षों तक वह ‘शूलप्रोत’ नामक नरक में रहता है। दहकते हुए अंगार उसे खाने को मिलते हैं और औटाया हुआ मूत्र पीने को। तपे हुए अंगारों की शय्या पर उसे सोना पड़ता है। उठने की चेष्टा करने पर यमराज के दूत उन्हें पीटते हैं। उस नरक यातना के अन्त में वह महापापी जीव भारतवर्ष में विष्ठा का कीड़ा होता है। उस योनि में उसे देवता के वर्ष से साठ हजार वर्षों तक रहना पड़ता है। तत्पश्चात् वह मानव भूमिहीन, संतानहीन, दरिद्र, कृपण, रोगी और निन्दनीय शूद्र होता है। उसके बाद उसकी शुद्धि होती है। नारद बोले– जो नराधम अपनी अथवा परायी कीर्ति का हनन करता है, वह कृतघ्न कहा गया है। उसको मिलने वाले फल का वर्णन सुनो। नरेश्वर! वह अत्यन्त दीर्घकाल तक अन्धकूप नामक नरक में निवास करता है। उसमें सरौते जैसे कीड़े उसे सदा काटते और खाते रहते हैं। वह पापी वहाँ तपाया हुआ खारा पानी पीता और खाता है। तदनन्तर सात जन्मों तक सर्प और पाँच जन्मों तक कौआ होने के बाद वह शूद्र होताहै। देवल ने कहा– जो भारतवर्ष में ब्राह्मण, गुरु अथवा देवता के धन का अपहरण करता है, उसे महान पापी एवं कृतघ्न समझना चाहिये। वह लंबे समय तक ‘अवटोद’ नामक नरक में निवास करता है। तदनन्तर शराबी और शूद्र होता है। इसके बाद उसकी शुद्धि होती है। जैगीषव्य बोले– जो पिता, माता तथा गुरु के प्रति भक्ति से हीन होकर उनका पालन नहीं करता, उलटे वाणी द्वारा उनकी ताड़ना करता है, उसे ‘कृतघ्न’ कहा गया है। जो कुलटा नारी प्रतिदिन वाणी द्वारा अपने स्वामी को ताने मारती या फटकारती है, वह ‘कृतघ्नी’ कही गयी है। भारतवर्ष में वह बहुत बड़ी पापिनी है। कृतघ्न पुरुष हो या स्त्री, दोनों ‘वह्निकुण्ड’ नामक महाघोर नरक में पड़ते हैं। वहाँ बहुत लंबे समय तक वे अग्नि में ही वास करते हैं। तत्पश्चात् सात जन्मों तक जलौका (जोंक) होकर वह शुद्ध होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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