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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 90
श्रीकृष्ण द्वारा चारों युगों के धर्मादि का कथन, श्रीकृष्ण को गोकुल चलने के लिए नन्द का आग्रह श्रीकृष्ण ने कहा- नन्द जी! पुराणों में जैसी अत्यन्त मधुर रमणीय कथा कही गयी है, उसे कहता हूँ। आप प्रसन्नमन होकर उसे श्रवण करें। सत्ययुग में धर्म, सत्य और दया- ये अपने सभी अंगों से परिपूर्ण थे। प्रजा धार्मिक थी। चारों वेदों, वेदांगों, विविध इतिहासों तथा संहिताओँ का रूप अत्यंत प्रकाशमान था। पाँचों रमणीय पञ्चरात्र तथा जितने पुराण और धर्मशास्त्र हैं, सभी रुचिर एवं मंगलकारक थे। सभी ब्राह्मण वेदवेत्ता, पुण्यवान और तपस्वी थे, वे नारायण में मन को तल्लीन करके उन्हीं का ध्यान और जप करते थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र चारों वर्ण विष्णुभक्त थे। शूद्र सत्यधर्म में तत्पर तथा ब्राह्मणों के सेवक थे। राजा लोग धार्मिक तथा प्रजाओं के पालन में तत्पर रहते थे। वे प्रजाओं की आय का केवल सोलहवाँ भाग कर रूप में ग्रहण करते थे। ब्राह्मणों से कर नहीं लिया जाता था, वे पूज्य और स्वच्छन्दगामी थे। पृथ्वी सदा सभी अन्नों से संपन्न तथा रत्नों की भण्डार थी। शिष्य गुरुभक्त, पुत्र, पितृभक्त और नारियाँ पतिभक्ता तथा पतिव्रतपरायण थीं। सभी लोग ऋतुकाल में अपनी पत्नी के साथ सम्भोग करते थे। वे न तो स्त्री के लोभी थे और न लम्पट थे। सत्ययुग में न तो परायी स्त्री से मैथुन करने वाले पुरुष थे और न लुटेरों तथा चोरों का भय था। वृक्षों में पूर्णरूप से फल लगते थे। गायें पूरा दूध देती थीं। सभी मनुष्य बलवान, दीर्घायु, (अथवा ऊँचे कदवाले) और सौंदर्यशाली होते थे। किन्ही-किन्हीं पुण्यवानों की नीरगता के साथ-साथ लाखों वर्षों की आयु होती थी। जैसे ब्राह्मण विष्णुभक्त थे, उसी तरह क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र- ये तीनों वर्ण भी विष्णुसेवी थे। नद तथा नदियाँ सदा जल से भरी रहती थीं। कन्दराएँ तपस्वियों से परिपूर्ण थीं। चारों वर्णों के लोग तीर्थयात्रा करके अपने को पवित्र करते थे। द्विजाति (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) तपस्या से पावन थे। सभी का मन पवित्र था। तीनों लोग दुष्टों से हीन, उत्तम कीर्ति से परिपूर्ण, यशस्कर तथा मंगलसंपन्न थे। घर-घर में सभी अवसरों पर पितरों की, निर्दिष्ट तिथियों में देवताओं की और सभी समय अतिथियों की पूजा होती थी। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र- तीनों वर्ण ब्राह्मणों की सेवा करते थे और सदा उन्हें भोजन कराते रहते थे; क्योंकि ब्राह्मण का मुख ऊसर रहित एवं अकण्टक क्षेत्र है। सभी लोग उत्सव के अवसर पर हर्ष के साथ नारायण के नामों का कीर्तन करते थे। उस समय कोई भी देवताओं, ब्राह्मणों तथा विद्वानों की निन्दा नहीं करता था। कोई भी अपने मुँह अपनी प्रशंसा नहीं करता था। सभी दूसरों के गुणों के लिए उत्सुक रहते थे। मनुष्यों के शत्रु नहीं होते थे, बल्कि सभी सबके हितैषी थे। पुरुष अथवा स्त्री कोई भी मूर्ख नहीं था; सभी पण्डित थे। सभी मनुष्य सुखी थे। सभी के रत्ननिर्मित महल थे; जो सदा मणि, माणिक्य, बहुत प्रकार के रत्न और स्वर्ण से भरे रहते थे। न कोई भिक्षुक था न रोगी; सभी शोकरहित और हर्षमग्न थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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