नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सनकादि कुमार-पूतना-मोक्ष
'हाय! लाल को ले गयी!' मैया यशोदा के मुख से चीत्कार निकला और वे गिर पड़ीं मूर्च्छित होकर। 'राक्षसी ले गयी लाल को!' माँ रोहिणी ने पुकारा और दूर तक वे भी दौड़ नहीं सकीं। वे भी दो पद छौड़कर मूर्च्छिता हो गयीं। 'राक्षसी ले गयी हमारा लाल!' गोपियाँ चिल्लाती दौड़ीं और दौड़ती गयीं। 'राक्षसी नन्दलाल को ले गई!' गोकुल के रक्षकों ने भी सुना- वे भी दौडे़; किंतु गोपियाँ तो पुकारती दौड़ती ही जा रही हैं। रक्षक इधर-उधर देखते जाते हैं। 'राक्षसी लाल ले गयी!' गोपियों को न शरीर का स्मरण है, न अपनी शक्ति का। इनके केश बिखर गये हैं, वस्त्र गिर गये हैं उत्तरीय के; किंतु इनकी तो पूरी शक्ति पदों में आ गयी है। ये पुकारती दौड़ रही हैं- दौड़ती जा रही हैं। आज इनकी गति की तुलना नहीं है। 'वह गिरी राक्षसी!' भारी धमाका हुआ और गोपियों की गति उत्साह में बढ़ गयी। इन्होंने तो सोचा भी नहीं था कि इतनी महाकाय राक्षसी मिल भी गयी तो ये उससे कैसे अपने नन्दलाल को छीन पावेंगी; किंतु राक्षसी गिर गयी। 'वह रहा लाल!' किसी ने राक्षसी के शरीर को नहीं देखा। वे उसे रौंदती चढ़ती चली गयीं और अपने सुकुमार युवराज को लेकर वैसे ही पीछे भागीं। उन्हें भय था कि राक्षसी उठकर उनसे कहीं फिर इस शिशु को छीन न ले! कुछ बहुत अधिक शीघ्रता से दौड़ीं- 'लाल मिल गया! हमारा नन्हा युवराज सकुशल है।' 'लाल मिल गया!' पुर-रक्षकों ने दूर से देख लिया और वे रुक गये। उन्होंने गोपीयों को पुर में आ जाने दिया, फिर शस्त्र सम्हाले और प्रत्येक गली पर सन्नद्ध धनुष चढ़ाये खड़े हो गये- 'अब आवे राक्षसी या उसके सहायक! हम एक बार इसके रूप से धोखा खा चुके! अब व्रजराज के आने के पूर्व कोई देवी-देवता यहाँ नहीं आने देंगे!' |
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