नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
70. बुध-विप्रपत्नियाँ
मथुरा के वेदज्ञ चतुर्वेदी ब्राह्मण बसन्त के समय वन में आकर यज्ञ करने लगे थे। मथुरा में तो कंस इतना भी उन्हें करने नहीं देता। किसी प्रकार उसे आश्वासन देकर कि यज्ञ उसी के अभ्युदय के लिये है, वन में यज्ञ-स्थल बना सके वे। मैं वायु-दैवत ग्रह हूँ। बसन्त वैशाख मास मेरे प्राबल्य का काल होता है; किंतु व्रज में तो वायु को सदा सुखस्पर्शी बनाये रखना मेरा दायित्व है और वेदज्ञ ब्राह्मण वैदिक यज्ञ करें तो मेरे जैसा शुभ ग्रह उत्पात तो नहीं कर सकता। मुझे हरित वर्ण प्रिय है। व्रजधरा नित्य हरित और मैंने तो कभी श्रीकृष्णचन्द्र अथवा श्रीकीर्तिकुमारी के श्रीअंग पर पीत अथवा नीलपट देखा नहीं। श्यामसुन्दर अपने पीताम्बर को अपनी अंगकान्ति से हरिद्वर्ण ही बनाये रहते हैं। मुझे लगता है कि मुझ अपने कुलपुरुष को प्रसन्न करने के लिये ही उन्होंने यह सहज अंग-कान्ति धारण की है। मेरा आशीर्वाद दोनों के साथ सदा-सदा। मैं बुद्धि का देवता ब्राह्मणों के सदा सानुकूल रहा हूँ; किंतु जब कोई स्वयं अपने अन्तःकरण को कामना-कुलषित कर ले तो मैं कर भी क्या सकता हूँ। मथुरा के उन महापण्डितों को स्वर्ग पाने की सूझी थी, अतः इतने समीप अपवर्ग को बाँटते-लुटाते साक्षात श्रीहरि विद्यमान हैं, यह कैसे उनके ध्यान में आता। वे तो व्रजधरा में पहुँचकर भी वैदिक कर्म-वितान में तल्लीन थे। धूम्रधूम्रात्मा कामना-कलुषित उन कृपण ब्राह्मणों पर भी श्रीकृष्ण ने कृपा की, यह उन करुणासागर का अपना स्वभाव- अन्यथा मेरी दी बुद्धि का तो वे दुरुपयोग ही कर रहे थे। स्रष्टा की सृष्टि में कहीं भी केवल सदगुण नहीं रहते। कुछ-न-कुछ दुर्गुण का दोष भी सर्वत्र सम्मिलित रहता है। बसन्त का ऋतुराज कहकर कविगण कितना भी गुणगान करें, केवल कुसुम ही तो वसन्त दे सकता है। यह दोष तो इस ऋतु में है ही कि वन में फल प्रायः सब अपक्व रहते हैं। अधिकांश अंकुरितावस्था में रहते हैं। यह अभाव मुझे जितना उन दिन अखरा- कभी इतना दुःखद नहीं हुआ था। |
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