नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
56. गणेश-गोचारण
गणेश की प्रथम गणना- केवल इसलिए यह प्रथम पूजा कि यह विघ्नराज-विघ्न करने वाले- भूत-प्रेत-विनायकादि का अधिपति है। कोई कार्य पूर्ण नहीं हो सकता, यदि गणनायक का प्रारम्भ में ही पूजन न हो और मेरा असन्तोष अक्रोश बन जाय। सभीत, सप्रयोजन सेवा कोई सेवा है? प्राणी अपनी आवश्यकता से विवश होकर तो मल-मूत्र-त्याग के स्थानों पर भी जाता है और उन्हें भी स्वच्छ रखता है; किंतु क्या यह उन स्थानों का सम्मान है? सम्मान तो है जब बिना आवश्यकता के केवल प्रीति अथवा श्रद्धा के कारण कोई निष्प्रयोजन पहुँचता है। यह सम्मान मनुष्य अपने सम्बन्धियों को और देवालय को देता है। व्रज ने मुझे यही सम्मान दिया है। इस दिव्य भूमि में देवी योगमाया नित्य अप्रमत्त संरक्षिका हैं। उनकी अनुमति के बिना यहाँ देवता तक प्रवेश नहीं पाते। मैं असन्तुष्ट भी बना रहूँ तो मेरा आक्रोश यहाँ क्या कर लेगा? क्या कर पाता हूँ मैं जब योगमाया किसी असुर को यहाँ आ जाने की इच्छा का अज्ञात अनुमोदन कर देती हैं और वह आकर आतंक उत्पन्न करता है? जिनके नाम-स्मरण से विघ्न विलीन हो जाते हैं, उनकी- उनके स्वजनों की सेवा करने में गणेश कहाँ समर्थ है। भगवती धरा यहाँ केवल प्रयोजन-पूर्ति मात्र के लिए कुश-कण्टक प्रकट करती हैं। पूरे व्रज में विघ्न वन सके ऐसा कोई मशक, मूषक, वृश्चिकादि भौतिक अथवा आधिदैविक प्राणी नहीं। मैं स्वयं आहूत न होता- आ सकता, इसमें सन्देह है, तब मेरा कोई गण आ सकेगा? |
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