नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. देवी दुर्गा-व्योम-वध
मय का पुत्र व्योमासुर- पिता से माया की शिक्षा क्या पा गया, उन्मादी हो गया। इतना तो इसे ध्यान होना चाहिये था कि मुझे सन्धिनी स्वरूपा योगमाया के अधीश्वर के समीप माया का कौतुक केवल मृत्यु का ही कारण बन सकता है। व्योम की माया में मनुष्य मात्र मोहित हैं। व्योम की माया- शब्द की माया मुनियों को भी मोहित कर सकती है; किंतु श्रीकृष्ण के शरणा-पन्नों पर उसका क्या वश? जिनको श्यामसुन्दर के चरणों का स्वप्न में भी सान्निध्य प्राप्त हो गया- वाणी की बकवाद क्यों सुनने लगे वे। उन्हें केवल वाग्जाल में उलझाना असम्भव है। मैं उनकी संरक्षिका हूँ यदि वे कहीं भटकने भी लगें; क्योंकि समस्त श्रीकृष्ण मन्त्रों की अधिदेवता होने के कारण यह मेरा दायित्व है। व्योमासुर व्यर्थ ही मरने मृत्युलोक नहीं आया। उसके उद्धार का अवसर आ गया था। मय भगवान महेश्वर का परम प्रीति-पात्र- उसी के पुत्र को माया के मोहजाल में अनन्त काल तक तो मग्न नहीं रहने दिया जा सकता। व्योम ने कालनेमि को मित्र मान रखा था। कालनेमि कंस के रूप में धरा पर उत्पन्न हुआ, तब भी व्योम अपने मित्र से मिलना नहीं भूला; किंतु मथुरा आकर वह लौट जाय अपनी दुष्प्रवृत्तियों में मग्न रहने, यह मुझे स्वीकार नहीं। मथुरा मेरे अग्रज की आविर्भाव भूमि- यहाँ आने पर प्राणी को उद्धार का पथ प्राप्त होना चाहिये। कंस अत्यन्त आतंकग्रस्त था। वह जिसे भी भेजता था व्रज में, वह लौटता नहीं था। नन्दनन्दन के समीप जाकर कोई संसार में लौटा करता है। पूतना, उत्कच[1] श्रीधर, काक, तृणावर्त गोकुल गये थे और अब वह प्रमील-वत्सासुर, वकासुर भी व्रज जाकर समाप्त हो गये। दृश्य, अदृश्य, अर्धदृश्य, मनुष्य-पशु-पक्षी किसी भी वेश में वहाँ जाकर कोई सफल नहीं हुआ और कंस को लगता है कि उसका काल प्रतिदिन-प्रतिक्षण बढ़ रहा है, सबल होता जा रहा है। उसने मित्र को अपनी मनोव्यथा सुना दी। व्योमासुर ने उसे आश्वासन दिया। दानवेन्द्र मय के पुत्र पर कंस भरोसा कर सकता था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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