नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. मैया यशोदा-सीमन्तन
यह धात्री मुखरा बहुत बोलती है। पता नहीं क्या-क्या कहा करती है। इसे गोकुल की ही नहीं, सारे संसार की और सम्भवत: स्वर्ग की भी सब बातें जाने कहाँ से मिलती रहती हैं। सबके घरों की, गोष्ठों की सुधि रखती है। उस दिन सबेरे हाँफती दौड़ी आई थी और बोली- 'महारानी! तुम मेरी बात नहीं मानती थी; अब जाकर दर्शन कर लो! मैं कहा करती थी कि श्रीव्रजराज कोर्इ बड़े देवता हैं। अब आज पूरा गोकुल उनके दर्शन को उमड़ पड़ा है तुम्हारे गोष्ठ में। इतना तेज-इतनी ज्योति तो मैंने किसी देवता में भी नहीं सुनी। जाकर दर्शन कर आओ! सौ-सौ सूर्य जितना तेज और कितना तो शीतल, स्निग्ध है वह!' मैंने इसे डाँट दिया था- 'क्या हुआ महर को? वे अब तक यहाँ क्यों नहीं पधारे?' लेकिन मेरा हृदय धक-धक करने लगा। इतनी देर तो उन्हें कभी नहीं होती थी भवन में आने में। मैं कब से उनकी पाद-वन्दना के लिये प्रतीक्षा कर रही हूँ। अवश्य उन्हें कुछ हो गया है। 'सब तो दर्शन करने आये हैं उनका।' मुखरा की पूरी बात सुनने जितना धैर्य मुझे नहीं रहा। मैं भागी गोष्ठ की ओर। सचमुच मेरे स्वामी को कुछ हो गया था। उनका अंग-अंग काँप रहा था। नेत्रों से अजस्त्र अश्रुधारा चल रही थी। शीतकाल का समय-माघ मास के अन्त में उनके शरीर से इतना स्वेद चल रहा था कि पटुका और धोती पानी में भीगी हों, ऐसी हो चुकी थीं। उनके शरीर से ज्योति बहुत निकल रही थी; किंतु उन्हें कुछ हो गया था। मेरे स्वामी बोलते नहीं थे। मैं ज्योति का क्या करती। मुझे पता नहीं कि कैसे पुकारती उन तक पहुँची थी। मैं उनको हिलाकर सावधान करना, उठाना चाहती थी; किंतु उनका शरीर-स्पर्श करते ही पता नहीं मुझे क्या हो गया। मैं अपनी ही सुध-बुध भूल गयी और तभी से मुझे कुछ हो गया है- ऐसा कुछ कि उसे मैं समझ नहीं पाती हूँ। |
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