नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. यमराज-अघोद्धार
प्राणी विषयों के प्रलोभन-वेश इन्द्रियों के असंयम के कारण पाप करता है। पुण्य तो परिणाम में सुखद है। प्रारम्भ में प्राय: पीड़ा प्रद ही प्रतीत होता है। अत: मनुष्य बहुत अभ्यास से, सत्संगति-शुद्ध अन्त:करण होने पर पुण्यकर्मों में प्रवृत्त होता है; किंतु पाप तो प्रलुब्ध करता है। अघ का आपात रमणीय आकर्षण मनुष्य को अकस्मात अधिकांशत: अनजान में ही अपने उदर में लेकर आत्मसात कर लेता है। पाप के पेट में गया और पतन के गर्भ में गिरता चला गया। पुनरुत्थान प्राय: अशक्यप्राय हो जाता है। तब तो नरकाग्नि में पुन:-पुन: पचना और बार-बार पशु-पक्षी, कीट-पतंगादि योनियों को पाते रहना ही प्राणी का प्रारब्ध बनता रहता है। पाप प्रलुब्ध करता है पुण्यात्माओं को भी। प्रबल मनोबल, दृढ़ संयम, सतत सत्संग, सबल शास्त्र-निष्ठा साधन हैं अघ के आकर्षण से सुरक्षित रहने के। किञ्चित शैथिल्य आया और पद प्रकम्पित हुए तो गये पतन गम्भीर गर्त में! सच्चे सत्पुरुष तो श्रीहरि के अभिन्न स्वरूप हैं। उनकी अनुकम्पा और कृष्ण-कृपा कभी दो तो होती नहीं। यह जिन्हें प्राप्त है, सृष्टि में वे सर्वथा सुरक्षित हैं। लेकिन सबल वे हैं जो श्रीकृष्ण के अपने हैं। वे नितान्त निर्भय- पाप-पुण्य बना करता है उनकी पद-रज के प्रसाद से। वे अघ के उदर में पहुँच जाय तो अघ को ही मरना पड़ता है; क्योंकि अधारि उनका अपना स्वभाव है और यशोदा- अंकधन का स्वभाव है कि जहाँ उसके सखा, सेवक, उसका स्मरण, वह वहाँ स्वयं। जहाँ स्वयं परात्पर परम पुरुष पुरुषोत्तम पहुँचेगा, वहाँ पुण्य ही प्रवेश नहीं पाता तो पाप के पंक का लेश कैसा। वहाँ एकमात्र आनन्द-अविकल उन्मुक्त रसराज की क्रीड़ा। |
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