नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. तुम्बरू-वेणुवादन
परम पुरुष पृथ्वी पर पधारे। हम गंधर्व उनका स्तवन तो करेंगे ही; किंतु मुझ शिव के साक्षात शिष्य, सुरों के स्वर-शिक्षक, गंधर्वों के गायन-गुरु का कर्त्तव्य तो इतने से पूर्ण नहीं हो जाता। मुझे प्रसन्नता हुई उन पुरुषोत्तम वनमाली शिखि-शिखण्ड मौलि नवघनसुन्दर नन्दनन्दन ने वत्स-चारण संस्कार के समय वंशी अपने करों में ली। गंधर्वों का अग्रणी मैं उस समय व्रज के गगन में व्रजराजकुमार का कीर्त्तिगान करने उपस्थित न रहता, यह तो असम्भव था। सुर, गंधर्व, किन्नर, अप्सराएँ सब स्तवन, संगीत, नृत्य, वाद्य के द्वारा सेवा करने में लगे थे। मुझे लगा कि मैं साक्षात सेवा का समय पा सकता हूँ। ये जब वत्स-चारण के लिए वन में पधारेंगे, वेणु-वादन मैं आकार सविनय सिखला दिया करूँगा। सहस्र-सहस्र बालक साथ निकलते हैं। सब रत्नजटित स्वर्णालंकार सज्जित। सब इतने सुन्दर कि सुरों और गंधर्वों में इस सौन्दर्य को स्वप्न में भी नहीं देखा जा सकता। सब शृंग लाते हैं और वन में पत्ते तोड़कर सीटियाँ बनाते-बजाते हैं। मुझे समय मिल जाय तो मैं सबको अपनी सम्पूर्ण संगीत-कला सिखलाकर अपने को धन्य ही मानूँ। रंगारंग-वन तो शोभा-सम्पन्न ही तब होता है जब प्रात: श्वेत, श्याम, पीत, अरुण- अनेक रंगो के बछड़े-बछड़ियाँ आती हैं और अपने कण्ठों में पड़ी क्षुद्र घण्टिकाओं को ध्वनित करती, मालाओं को हिलाती वन में कूदती-उछलती क्रीड़ा करने लगती हैं। समीप के ही नहीं, दूर-दूर के वन-पशु वन-सीमा पर शान्त प्रतीक्षा करते होते हैं और पक्षी वन-प्रान्त के ब्राह्य तरु-पंक्तियों पर बैठे देखते होते हैं। पक्षी ही उड़कर, आनन्द कलरव करके स्वागत का समय पहिले पाते हैं। कपि तो नन्दग्राम से साथ ही कूदते आते हैं। पशु वन में पहुँचते ही बालकों के समूह में मिल जाते हैं और बछड़े उन्हें सूँघकर कूदते हैं, उनके साथ खेलते हैं। बालकों को सदा वन में पहुँचते ही प्रसाधन-सामग्री एकत्र करने की सूझती है। नवकिसलय, गुंजा, पुष्प, गैरिक, हरताल आदि वन-धातुएँ- जिसको जो सूझ जाय। सबको श्रीनन्दनन्दन को सजाना है और श्रीश्यामसुन्दर को स्वयं अपने करों से सबको सजाना है। अलकों में सुमन-गुच्छ, किसलय, पक्षियों के श्वेत, हरितादि पिच्छ, कर्ण पर कर्णिकार के पीत-पुष्प, कण्ठ में मालाएँ, भुजाओं में, कलाइयों में गुंजा, वन-पुष्प-उदर पर, वक्ष पर, पृष्ठ पर, बाहुओं पर वन-धातुओं के चित्र-सबका अद्भुत वेश बन जाता है। सब सजाते हैं एक साथ श्रीकृष्णचन्द्र को अथवा इनके साथ किसी सखा को घेरकर सजाने लगते हैं। जिसे जो रुचे, जो अंग मिल जाय, उसी को सजाने में लग जाता है। |
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