नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
38. दाऊ-वृक्रोपद्रव
कई दिनों से मैं इसी चिंता में हूँ। सृष्टि में इन श्रीकृष्ण को छोड़कर ऐसा कोई नहीं है, जिसकी शक्ति मेरा स्पर्श भी कर सके और मैं नहीं समझ पाता हूँ कि यहाँ की सम्पत्ति शोभा सौष्ठव क्योंं सहसा लुप्त हो रहा है? गोपों को कहते सुना है मैंने कि पूरे महावन में जो मणियाँ प्रकट थीं, वे लुप्त हो गयीं। उन्हें चुनते, उठाते किसी को देखा नहीं गया। अब सुनता हूँ कि हरित तृण भी वन में अल्प हो गये हैं। पशुओं को अपना पेट भरने के लिए दूर-दूर तक चरना पड़ता है। सेवक काष्ठ लेने जाते हैं और अपर्याप्त ईंधन लेकर लौट आते हैं। वे कहते हैं कि वन में शुष्क काष्ठ बहुत कम हो गया है। हरे, तरु तो तोड़े नहीं ही जाने चाहिये। मनुष्यों के अपकर्म से धरा ऊसर होती है। मानवों के अपराध से वनश्री विदा हो जाती है। मुनष्य पापकर्मा हो तो मेघ समय पर वर्षा नहीं करते और लता-तरु सम्यक फल-पुष्प प्राप्त नहीं कर पाते। मनु की सन्तान जब सत्यपथ त्यागकर कुपथ का अवलम्बन करती है तब उसे आवास, आजीविका एवं आमोद के साधन अप्राप्य होते हैं; किंतु श्रीकृष्ण के स्वजनों को तो कल्मष का स्पर्श नहीं होता। समस्त पुण्य जिनके पदपद्मों के स्मरण की परिणति पाकर सार्थक होते हैं- वे स्वयं यहाँ हैं और यहाँ से सम्पति, शोभा, सुविधा का लोप हो रहा है- यह क्या लीला है? इनकी इच्छा के बिना तो योगमाया ऐसा प्रसाद नहीं कर सकती। आज मैंने लक्षित किया कि यमलार्जुन के पत्र भी शीर्ण होने आरम्भ हो गये। क्या हुआ कि इन दोनों वृक्षों की जड़ें उखड़ गयी हैं। रस को जिनकी अनुकम्पा से रस प्राप्त होता है, वह स्वयं रसराज इन पर क्रीड़ा करता है और ये शुष्क होने लगे? मुझे कन्हाई से ही इसका कारण पूछना था। यह चपल एकान्त में मिलता नहीं था और सबके सम्मुख तो यह सब पूछा नहीं जा सकता। मुझे सृष्टि की, संसार की, स्त्रष्टा की मार्यादाओं की चिन्ता नहीं। ये मार्यादाएं रहें या मिटें; किंतु मेरे श्याम को सन्तुष्ट रहना चाहिये। इसे सुख मिलना चाहिये। इसकी क्रीड़ा में कोई बाधा नहीं पड़नी चाहिये। यह सब इसकी इच्छा है तो ठीक है और किसी अन्य का उत्पात है तो वह सुर हो या असुर मैं उसे समझ लने में असमर्थ नहीं हो गाया हूँ। मैं उसे वह शिक्षा दूँगा कृष्ण-क्रीड़ा में बाधक बनने की कि उसे कल्पों तक पुन: ऐसा दुस्साहस नहीं होगा। |
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