नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. भगवान शिव-महारास
इस समय तो सर्वेश्वरेश्वर परात्पर पुरुष स्वयं पधारे हैं पृथ्वी पर। वे रसराज महारास करने वाले हैं रासेश्वरी को लेकर उनकी अभिन्न सहचरियों के साथ। उनका यह रास वृन्दावन में- गोलोक के नित्य निकुंज में नित्य है, शाश्वत है; किंतु व्रजधरा पर वृन्दावन में भी शरत्पूर्णिमा की रजनी में वह परम रसमयी लीला प्रादुर्भूत हो रही है। उसमें उन पुरुषोत्तम के अतिरिक्त तो और किसी पुरुष का प्रवेश शक्य नहीं; परन्तु स्त्री बनकर सम्भव है मैं प्रवेश पा सकूँ। वैसे वहाँ आद्या भगवती कात्यायनी- ललिता की अनुमति पाये बिना तो कोई प्राणी प्रवेश नहीं पाता। मूर्तिमान महाभाव रासेश्वरी श्रीराधा की संकेत- स्वीकृति के बिना आद्या अनुमति नहीं देतीं, इतना सब होने पर भी प्रयत्न करूँगा। श्रीकृष्णचन्द्र का जो सहज स्नेह है मुझ पर, उसी का सहारा है। किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिये कि श्रीहरि ने मोहिनी रूप धारण करके मुझे सम्मोहित किया, अतः मैं यह स्त्री शरीर स्वीकार करके रसराज को मोहित करने का मनोरथ करूँगा। वहाँ स्वयं रासेश्वरी हैं और उनका अनन्त आकर्षण श्रीकृष्णचन्द्र को विमुग्ध बनाये रहता है। वे उन मयूर-मुकुटी की स्वमोहिनी आह्लादिनी पराशक्ति- शिव उनकी सहचारियों में- सेविकाओं में भी स्त्री बनकर प्रवेश पा जाय तो परम सौभाग्य। पर्वताधिराज तनया को साथ लाने का प्रश्न ही नहीं था। उनके साथ स्त्री शरीर धारण में संकोच न भी करूँ तो भी पहिचानकर पकड़ लिये जाने का भय तो है ही। न गण, न वृषभ- यह संग-साथ सम्भव नहीं। अपने कर्पूर-गौर रूप से स्त्री बन जाने का साहस भी नहीं कर सका। यह चन्द्रोज्वल रूप रासेश्वरी की अनन्त सौन्दर्य राशि सखियों के सम्मुख अत्यन्त उपेक्षणीय प्रतीत होता। मैंने अपने नीललोहित रूप का आश्रय लिया। श्रीकृष्ण की सखियों में कुछ श्यामांगी भी तो हैं, मैं उनमें छिप सकता हूँ। क्या हुआ कि सबसे अधिक काली दीखूँगी। इसमें तो सेविका समझ लिये जाने की सुविधा है और यदि ऐसा हो जाय- सेवा का सौभाग्य मिल सकता है। मैं वृन्दावन पहुँचा तो शशांक की गति ही स्तम्भित नहीं हो गयी थी, मेरी स्वयं की गति गगन में ही स्तम्भित हो गयी। मैं वहीं से दर्शन करता रहा- बहुत देर तक आत्म-विस्मृत बना रहा। कब तक? कुछ पता नहीं; किंतु सम्भवतः सम्पूर्ण दिव्य रात्रि तक। मैं जब नीचे पहुँच सका तब तो रस-राज की रासक्रीड़ा समाप्त ही होने वाली थी। प्रारम्भ से दर्शन का अवसर प्राप्त हुआ था मुझे। वनमाली पुलिन पर से उठे और उन्होंने मुरली अधरों पर रख ली। रासेश्वरी को आदरपूर्वक वाम भाग में ले लिया। यह श्रीराधा-कृष्ण की परस्परालिंगित अपार छवि-छटा। वाम भाग में झुकता, लहराता मयूर मुकुट और नील-पीत वसनों की सम्मिलित शोभा। दोनों के अंगों पर उनकी अंगकांति से बने हरिद्वर्ण वस्त्र; किंतु श्याम का वस्त्र श्रीराधा के अंगों पर पहुँचकर शतगुणित पीत हो उठता था और रासेश्वरी के वस्त्र की नीलिमा की ज्योति रसराज के श्रीअंग पर पहुँचकर परम कान्ति देती थी। |
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