नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. शुक्राचार्य–श्रीधर विप्र
क्या हुआ कि असुर उद्धत होते हैं। जिनकी बाहु में बल है, जिनके प्राणों में प्रबल ऊर्जा है, वे नियमों में आबद्ध कैसे रह सकते हैं। उनके पद अपने प्रहार से पर्वतों को फोड़कर पथ बनावेंगे। पुरानी पतली पगदण्डियों पर वे क्यों चलें? मैं ऐसे महाप्राणों को आशीर्वाद देता हूँ। मैं ग्रह हूँ- सबसे तेजस्वी और मानव-शरीर के सप्तम धातु का अधिष्ठाता। मुझे कला प्रिय है; किंतु पराक्रम से स्थापित शान्ति में कला पनपती है। कम्पित हृदय, क्षीणकाय, अल्पप्राण, अशान्त, भयभीत लोगों को कला की न परख हो सकती, न कला उनके यहाँ आश्रय लेती। दूषित दुर्गन्धि में किलबिलाते काम-कीट क्या जाने कि कला होती क्या है! मैं नीति-शास्त्र का प्रणेता, शिक्षक और सञ्जीविनी विद्या का एकमात्र आचार्य-सुरगुरु बृहस्पति मुझसे स्पर्धा रखते हैं। मुझे भी वे उचित प्रतिस्पर्धी लगते हैं। मैं ब्राह्मण हूँ; किंतु मानधनी ब्राह्मण। नारायण के भी वक्ष पर पाद-प्रहार करने वाले भगवान भृगु का वंशज! मुझे ब्राह्मण का प्रज्वलित तेज प्रिय है। विराट पुरुष के मुख से उत्पन्न ब्राह्मण! सुप्रसन्न ब्राह्मण का आशिर्वाद समृद्धि का स्त्रोत और क्रुद्ध ब्राह्मण का शाप हाहाकार करा देने वाला प्रलयवाड़व न हुआ तो ब्राह्मणत्व व्यर्थ है। मैं ब्राह्मण श्रीधर पर प्रसन्न हुआ था। उसने उचित निर्णय किया था सुरासुर जयी कंस का पौरोहित्य स्वीकार करके। अपने यजमान की श्रीवृद्धि के लिये उसके अभिचारानुष्ठान उचित थे। अन्तत∶ भगवान चन्द्रमौलि के श्रीमुख से प्रकट तन्त्रों के ये अनुष्ठान अकारण तो नहीं हैं। मानता हूँ कि ये हालाहल विष के समान हैं; किन्तु विशिष्ट भिषक् क्या जो अत्युग्र विष को अमृत न बना सकता हो। कंस में बल, विक्रम, ओजस्विता थी और थी प्रबल महत्वाकांक्षा जो मुझे प्रिय है। बुझा-शान्त मानस मेरे प्रतिस्पर्धी सुरगुरु को ही श्रेयस्कर लग सकता है। मैं महत्वाकांक्षा से उद्दीप्त पुरुष को आशीर्वाद देता हूँ। श्रीधर ने उचित यजमान का पौरोहित्य स्वीकार किया था। लोग उसे असुर-विप्र कहें∶ किंतु वह मुझे प्रिय था। |
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