नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
51. रंगदेवी-तुलसी-पूजन
अब इसके मुख पर हाथ रखकर, इसके कण्ठ में बाहु डालकर मना लेने के अतिरिक्त उपाय क्या है। मैंने अनेक बार कहा है- 'तू मानती क्यों नहीं कि तू छोटी है और मैं बड़ी हूँ।' 'मानती तो हूँ। मैं तो मुझे सदा बड़ी मानती हूँ। कान पकडूँ अपने?' यह चौंक जाया करती है। एक ही बात बार-बार कहने पर भी चौंकती है। 'तब मुझे रोकती क्यों है?' यह मेरा महास्त्र है, जिससे मुझे इसकी सेवा का किञ्चित अवसर मिल जाता है- 'मैया हम सबकी चोटी गूँथती है अपने करों से, सबका श्रृंगार करती हैं, सबको स्नेह से खिलाती है। मैया बड़ी है या तू? बड़ों का स्वत्व है छोटों की सेवा करना स्नेहपूर्वक। अत: चुपचाप मैं करूँ, उसे स्वीकार कर लिया कर। 'तू मैया जितनी बड़ी हो गयी है?' यह ऐसे आश्चर्य से देखती है कि सबको हँसी आकर ही रहती है। मेरे हाथ जोड़ने लगेगी और मेरे कण्ठ में ऐसे लिपट जायगी जैसे भैया के कण्ठ में लिपट जाती है। मैया कहती हैं- 'मेरी लाली को क्रोध करना, रूठना, कुछ माँगना कभी नहीं आया।' इसे मैं भली प्रकार जानती हूँ कि केवल कृपा करना, देना इसे आता है और यह तब रूठती है जब कोई इसकी श्रेष्ठ मानकर स्तवन करने लगे। इसको हम सब अपनी नेत्र-पुतलियों के समान पलक बनी पल-पल न सम्हालें तो अपने स्नान, आहार की भी सुधि नहीं आवेगी। यह तो पुष्पाभरण लेते भी देखती है कि किसी सखी की अलकें अनलंकृता तो नहीं हैं। इसने कहाँ जाना कभी कि कोई इसकी अपनी वस्तु भी है। बाबा इसका मुख जोहते हैं- 'मेरी लाली क्या चाहती है?' मैया मनुहार करती रहती है- 'राधा तू कितनी दुबली होती जा रही है। मेरी लाली, तनिक तो खा ले!' दोनों भाइयों के लिए जो कुछ मिले, वह सब इस अनुजा के उपयोग के बिना अनुपयोगी हैं; किंतु यह है कि इसे शैशव से हम सबकी ही नहीं, वृद्धा दासियों तक की ही चिन्ता रहती है। यह यही देखा करती है- किसे दिया जा सकता है, किसे खिलाया जा सकता है, किसे किस सेवा से सन्तुष्ट किया जा सकता है। |
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