नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
62. शनैश्चर-ढुण्ढा की होली
'स्मरण है भगवन!' मैंने कहा- 'कालिन्दी के सम्बन्ध से मुझ जैसे अशुभ ग्रह को भी सौभाग्य मिलेगा श्यालक कहलाने का उन सर्वेश का।' 'कुछ सेवा भी उनकी करनी है?' देवर्षि ने पूछ लिया। 'अहोभाग्य मेरा यदि कोई अवसर मिले।' मैंने हिचकते हुए कहा- 'अभी वे शिशु हैं और जानते ही हैं कि शनैश्चर सोलह वर्ष की वयतक निष्प्रभाव प्राय रहता है। फिर मैं उन निखिलेश्वर को सुयोग भी क्या दे सकता हूँ।' 'केवल यह करो कि कल सायं वृन्दावन में एक स्थान पर अपनी दृष्टि केन्द्रित रखो?' देवर्षि हँसे। मैं चौंक गया- 'देव! मेरी दृष्टि वृन्दावन में! इस दृष्टि का तो दुर्निवार्य प्रभाव है और वह अशुभ है!' 'सुनो!' देवर्षि ने समझा दिया- 'हिरण्यकशिपु की बहिन होलिका प्रह्लाद को भस्म करने के लिये अग्नि में बैठी। उसका वरदान प्राप्त वस्त्र और वह स्वयं भस्म हो गयी; किंतु भक्तापराध करके कृत्या हो गयी। प्रह्लाद जैसे भक्त का संसर्ग पाकर भी कब तक यह इस अधम देह में कष्ट पाती रहेगी। वैसे तो अनन्त काल तक भी इसके उद्धार का उपाय नहीं था; किंतु प्रह्लाद से अधिक श्रीकृष्ण के प्रिय सखा इसे भस्म कर दें तो यह परिपूत हो जाय। स्वयं श्रीकृष्ण इसका उद्धार नहीं करेंगे। भक्तापराधी का उद्धार उनका स्वभाव नहीं है। 'मैं इसमें क्या सहायता करूँगा देव?' मैंने पूछा। 'कंस ने उस कृत्या को अनुकूल कर लिया है और कल वह वृन्दावन पहुँचेगी।' देवर्षि ने आदेश दिया- 'तुम केवल उस पर दृष्टि रखो, जिससे वह अपनी आकाश-गमन और अदृश्य होने की शक्ति स्तम्भित पावे। इसके अतिरिक्त जो करना है, वह स्वयं सब गोपकुमार कर लेंगे।' देवर्षि विदा हो गये। वैसे भी मैं सामान्य शुद्ध नीलमधारी को सुप्रभाव प्रदान करता हूँ, व्रजधरा तो साक्षात महानीलकान्त श्रीकृष्णचन्द्र से सुशोभित है। ये श्यामसुन्दर जिस हृदय में हैं, शनि सदा उसके सानुकूल रहेगा ही। अतः व्रज-दर्शन में मुझे बाधा नहीं दीखती। नन्दग्राम-बरसाने सब समारोह प्रायः संयुक्त होते हैं, यह सुन चुका हूँ। दृष्टि नहीं उठा सकता; किंतु श्रवण सर्वदा सावधान इधर ही लगे रहते हैं और सभी को संसार का अधिक ज्ञान तो श्रवणेन्द्रिय द्वारा ही होता है। कोई देख भला कितना सकता है। |
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