नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. उद्धव
मुझे बहुत अभिमान था कि मैं सुरगुरु भगवान बृहस्पति का साक्षात शिष्य हूँ और गुरुदेव मुझे अपने शिष्यों में सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमान बतलाते थे। नीति शास्त्र और अध्यात्म-ज्ञान समान रूप से मेरे लिये करामलकवत् हैं। महाराज उग्रसेन का यादव राजसभा का मैं इससे मंत्री बना; किंतु श्रीकृष्णचन्द्र की सेवा, उन सर्वेश्वर का सान्निध्य तो नीतिज्ञता एवं केवल ज्ञान से सुलभ नहीं होता। मुझे अपनाया मेरे सर्वज्ञ स्वामी ने मेरे हृदय की उत्कण्ठा देखकर। मुझे अपनी सेवा का अधिकारी बनाने के लिये व्रज भेजा। यहाँ आकर मैं किसी-को क्या समझाता अथवा सिखलाता- यहाँ तो मैंने ही सीखा है- बहुत कुछ सीखा है। श्रीकृष्णचन्द्र ने चलते समय जो कुछ कहा था, जो संकेत दिये थे, उनका मर्म भी मैं व्रज आये बिना नहीं जान सका और अपने को बहुत बड़ा विवेकी-बुद्धिमान मानता हूँ। मैं अभिमान लेकर चला था कि ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जिसे मैं समझा न सकूँ। 'उपदेष्टा का युक्ति-दौर्बल्य है यदि श्रोता का अन्तःकरण उसकी बात ग्रहण करके उसके अनुकूल नहीं हो जाता।' गुरुदेव से सुना यह सूत्र तो स्मरण था; किंतु इसका अर्थ कितना व्यापक है, मेरी समझ में ही नहीं था। मुझे लगता था कि मैं तर्क-कर्कश किसी भी बड़े नैयायिक को भी सानुकूल चला सकता हूँ, व्रज के भोले श्रद्धालु लोगों को समझा लेना क्या कठिन है। भक्ति-निष्ठा की अविचल शक्ति का कोई अनुमान नहीं था मुझे। व्रज की अचिन्त्य प्रीति तो प्रत्यक्ष देखे बिना मुनि-मानस के लिये भी अचिन्त्य है। 'मेरी मैया.......मेरे सखा........मेरी प्रिया श्रीवृषभानु-सुता......' स्वामी केवल ये शब्द कहकर मानो मूर्च्छित हो जायँगे। ऐसे हो गये थे। कठिनाई से अपने को सावधान करके वे दूसरों की चर्चा में लग गये थे- 'उद्धव! मेरे बाबा को विनयपूर्वक पाद-स्पर्श करके मेरी विवशता बतलाना। यहाँ आये दिन मगधराज के आक्रमण की आशंका मुझे अवकाश नहीं देती कि मैं मथुरा से कुछ घटिकाओं के लिये भी निकलूँ और उनके चरण-दर्शन करूँ। उनको अपनी श्रद्धा-भक्ति से सन्तुष्ट करना!' मैया का नाम लेकर श्रीकृष्णचन्द्र मूर्च्छितप्राय हो गये थे और स्वस्थ होने पर किसी प्रकार बाबा के सम्बन्ध में कहने लगे थे। अचानक सखाओं का स्मरण करके पुनः अवसन्न हो गये। बोलने योग्य हुए तो बोले- 'मेरी गायों को देख लेना। उन्हें सहलाना और अपने हाथ से उन्हें अवश्य कुछ खिला आना।' 'मेरी प्रिया.....' मूर्च्छित ही हो गये थे स्वामी। मेरे प्रयत्न से सावधान हुए तो गोपियों की चर्चा की। उन्हें मैं समझाऊँ, उन्हें उपदेश करूँ, उनकी व्यथा दूर करूँ, यह कहकर भी कह गये- 'उन्होंने मेरे लिये स्वजन-परिवार, परलोक सब त्याग दिया है। वे मेरे लिये ही जीवित हैं। उनकी सब चेष्टा मेरे लिये हैं। वे केवल शरीर हैं। उनमें श्वास श्रीकृष्ण की है। उनमें चेतना मेरी है।' |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज