नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. फल-विक्रयिणी
मथुरा में महाराज उग्रसेन थे तो कोई कठिनाई नहीं थी। बहुत भले थे। वहाँ के यादव नागरिक। मेरे फल-औषधियाँ वे ले लेते थे और उदारता पूर्वक मूल्य देते थे। उनके कुल में पता नहीं कंस कैसे उत्पन्न हो गया। उसने तो इधर-उधर से सारे संसार के राक्षस मथुरा में एकट्ठे कर लिये हैं। अब मैं मथुरा जाकर क्या करूँ- कंस के ये राक्षस नगर-पाल मुट्ठी भर-भरकर मेरे फल खा लेते हैं, हँसते हैं। मुझ दरिद्रा वृद्धा पर दया आना तो दूर, मुझे तंग करके, लूटकर उन्हें आनन्द आता है। मथुरा जाकर क्या भूखों मरना है मुझे। मैंने जीवन में कभी कच्चे, कड़वे-कसैले-खट्टे फल नहीं बेचे। मधुर, सुस्वादु फलों को देखते ही पहिचानना तो मैंने अपनी पुलिन्द पल्ली के बालकों को, बहुओं को सिखाया है। ग्राहक को मधुर कहकर खट्टा फल तो मुझसे कभी दिया नहीं जाता। नागरिक क्या जानें वन्य फलों का स्वाद। आम्र, फणसादि उपवनों के फल ही तो नगरों में मिलते हैं। मानती हूँ कि आम्र फलों का राजा है, इसके स्वाद की तुलना नहीं; किन्तु नागरिकों को भी वन के नवीन-नवीन फलों का स्वाद तो आकर्षित करता ही है। सभी नवीन फल देखकर उसे एक बार लेना चाहते हैं। अच्छे पके सुस्वादु फलों के लिए मुझे वन-वन भटकना पड़ता है। कँटीली लताओं में से बैठकर, कभी लेटकर भी सरक कर निकलना पड़ता है। गोकुल के ब्रजपति नन्दराय और उनके गोपों की बड़ी प्रशंसा सुनी थी। गोप बहुत भले, बहुत उदार हैं, अत: आशा हो गयी कि वहाँ मेरे फलों का मूल्य समझा जायगा। कम-से-कम कंस के राक्षसों के समान वहाँ कोई मुझ बुढ़िया को लूटेगा नहीं। कई दिनों वन-वन भटकी थी, कड़ा श्रम करके कुछ फल एकत्र कर सकी थी। कोई मेरे फलों का मूल्य समझने वाला मिल गया तो कुछ दिन बैठकर खाने की व्यवस्था हो जायगी। हम पुलिन्द कहाँ परिग्रही होते हैं। मैं तो बूढी हूँ, मेरे युवा पड़ोसी ही एक दिन को भोजन झोपड़ी में हो तो काम करने को नहीं निकलते। |
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