नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. महर्षि जाजलि-बकोद्धार
अधिकांश समुद्रीय मत्स्य सरिताओं के जल में उस स्थान पर अण्डे देने आते हैं, जहाँ सरिता के समुद्र में मिलने के कारण दलदल बनता है। मत्स्यजीवी वर्ग इसे जानता है। अत: अपने आखेट के उपयुक्त स्थान वह इसी को मानता है। उसे मछलियों के प्रजनन समय का पता होता है। इसी प्रलोभन के कारण दैत्यराज हयग्रीव का पुत्र उत्कल गंगा-सागर के समीप पहुँचा था। मैं उन दिनों महर्षि कपिल के सान्निध्य, संरक्षण को स्वीकार करके गंगा-सांगर द्वीप में ही आश्रम बनाकर रहता था। तपस्या मेरा स्वभाव है- व्यसन है। उन दिनों सांख्यशास्त्र के प्रणेता भगवान कर्दमात्मज से सांख्य का श्रवण-चिन्तन भी चल रहा था। उन आदि पुरुष ने कृपा करके मुझे अपना शिष्य स्वीकार कर लिया, जब मैं उनके श्रीचरणों में समित्पाणि उपस्थित हुआ। सचराचर समुद्धारिणी, श्रीहरि-चरण समुद्भवा, शिव-शिर-विहारिणी, भवतारिणी भगवती सुरसरि के समुद्र-संगम का वह परमपावन तीर्थ, मेरे साक्षात गुरु सुरासुर समाराधित भगवान कपिल का आश्रम, मेरी अपनी तपस्थली और वहीं मेरे सम्मुख ही दैत्य हयग्रीव के उस मदान्ध-पुत्र उत्कल ने मत्स्य पकड़ने के लिए बंसी डाल दी जल में। मैंने मना किया। वह अन्यत्र कहीं जाकर अपनी जिह्वा-लोलुपता का साधन जुटा सकता था, इस अत्यन्त पवित्र क्षेत्र में प्राणि-हिंसा की कोई अनिवार्यता उसे नहीं थी; किंतु मेरी बात अपनी सुनी ही नहीं। क्यों सुनता? उसने अपने पराक्रम से समर में सुरों के साथ शक्र को भी पराजित कर दिया था। जिससे अमरावती के अधिपति भी आशंकित रहते थे, वह एक शीर्णकाय ब्राह्मण की बात पर क्यों ध्यान दे? वह अपनी बंसी की ओर ही नेत्र लगाये स्थिर बैठा रहा। उचित यह था कि मैं वह आश्रम त्यागकर अन्यत्र चला जाता। भगवान कपिल के समीप जाकर बैठ जाता तो भी चित्त शान्त हो जाता; किंतु असुर के इस सामीप्य ने मेरे अन्त:करण में भी उत्तेजना उत्पन्न कर दी। मेरे भीतर रजोगुण प्रबल हो गया। रोष आ गया मुझे। मैंने गंगा-जल लेकर शाप दे दिया- 'तू अपनी शक्ति के अंहकार में अन्धा होकर इस क्षेत्र की पावनता को नहीं देखता, तीर्थ का असम्मान कर रहा है, यहाँ के अधिष्ठाता भगवान कपिल का अनादर कर रहा है, मुझ ब्राह्मण की बात बधिर के समान अनसुनी करके बक के तुल्य मत्स्य पकड़ने के लिए बैठा है, अत: बक हो जा!' |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज