नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
45. लक्ष्मी-गोदोहन
निखिल-लोकेश्वर श्रीगोलोकाधिपति गोकुल में पधारे। मुझे गोबर में स्थान मिला था- मैं तो इस माध्यम से पहिले ही दिन सूतिकागार में पहुँच गयी। वे गोपाल ही बनने तो आये हैं। उनकी सेवा उनका सान्निध्य सुगम कर दिया है गोमाता ने मेरे लिए। वह पूतना आयी थी गोकुल, उस दिन तो गोपियों ने इन मुकुन्द को गोमूत्र से स्नान ही कराया और जब इनके अंगों में गोबर लगाकर रक्षा की गयी, मुझे इनके सभी अंगों का स्पर्श प्राप्त हुआ। श्रीवत्स के रूप में इनके वक्ष-स्थल पर वास बहुत औपचारिक है। सनाथ तो किया मुझे अपने शैशव में ही इन पुरुषोत्तम ने। गोष्ठ में घुटनों के बल सरकते आ जाते थे और गोबर अथवा गोमूत्र देखते ही बैठ जाते थे सखा अथवा अग्रज के साथ जमकर। एक दूसरे के अंगों पर वह अंग-राग लगाते थे। वह हरे, पीले, भूरे आदि गोबर से चर्चित इनका श्रीअंग- वह शोभा, वह मुझे ही तो स्पर्श दान की अनुकम्पा थी। एक दिन ऐसे ही गोष्ठ में सरकते आये। अपनी कामदा के उसी अवसर पर किये गये गोबर के समीप बैठकर दोनों करों से उसको पकड़ने लगे। मुझे लगा- यह मुझे आलिंगन-दान की अनुकम्पा है। मैया आ गयी उसी समय। मैया के सम्मुख तो मुझे कर से नहीं पकड़ सकते थे। उस कुछ कड़े, तनिक उष्ण गोबर पर झुककर अलक-मण्डित मस्तक रखा और मुख घुमाकर मैया को देखने लगे। वह गोबर को इनका उपधान बनाना! इधर यहाँ नन्दगाँव आकर लगता था कि सखाओं के साथ क्रीड़ा करने में मुझे भूल ही गये हैं; किंतु नहीं, ये कहीं किसी अपने चरणाश्रित को भूलते हैं। अब निश्चित हो गया कि प्रतिदिन प्रात:काल ही गोष्ठ में मुझे दर्शन प्राप्त होंगे। अपने सखा भद्र की देखा-देखी इनको भी अब गोदोहन की धुन लगी है। भद्र ने कह दिया- 'यह दूध मैंने दुहा है।' 'तू गाय दुह लेता है?' बड़े आश्चर्य से पूछा इन्होंने। 'मैं तो कब से दुहता हूँ। इतनी मोटी दूध की धार निकालता हूँ।' भद्र ने अपनी कनिष्ठिका दिखलायी। |
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