नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
25. बुआ सुनन्दा-मृद्-भक्षण
'मैंने स्वामी से कह दिया है- 'हम कोई नगर-गाँव में रहने वाले हैं। अपनी गायें ले आओ और यहीं अपना एक गोष्ठ बना लो।' यशोदा भाभी तो देवता हैं- इतनी भोली कि पूछो मत। कहने लगीं- 'सुनन्दा! तेरे भैया का भी गोष्ठ भी तो तेरा ही है। तू अलग ही गोष्ठ बनाना चाहती है तो इसी गोष्ठ को अपना बना ले।' ऐसे कहीं स्वामी का ससुराल में रहना उचित है। लड़की तो लेने के लिए ही उत्पन्न होती है। मुझे भैया से जीवन भर ही लेते रहना है। वैसे ही इतनी गायें दे दी हैं पहिले कि स्वामी किसी प्रकार भी सम्हाल नहीं पाते और जब से भाभी की गोद भरी- मेरे नेग तो निकले ही रहते हैं। पाँचों भाइयों के घर-आँगन कुमारों की क्रीड़ा से मनोहर हो गये हैं और मुझे तो रानी भाभी रोहिणीजी के दाऊ के भी नेग मिलते हैं। मेरे यह द्वादश आदित्यों जैसे द्वादश भातृ-पुत्र- इनको नारायण युग-युग का जीवन दें। इनके नेगों ने इस सुनन्दा को महारानियों से भी अधिक सम्पन्न बना दिया है। इनमें-से किसी-न-किसी का कोई उत्सव, संस्कार आता ही रहता है। सुनन्दा को सब में रहना चाहिए और भाभियाँ पता नहीं कहाँ के नये-नये नेग निकालती हैं। मेरे सब भाई-भोले हैं और मझले ये व्रजेश्वर नन्द भैया तो साक्षात शिवशंकर हैं। इन्हें किसी को भी देते संतोष नहीं होता। फिर मैं तो इनकी बहुत लाड़ली छोटी बहिन हूँ। यह नन्हा नीलमणि जब से आया, मुझसे एक पल को छोड़ा नहीं जाता। यह अब मुझे 'भुआ' कहता है- कहता है और हँसता है, ताली बजाता है, किलकता है। इधर-उधर फुदकता है और आकर गोद में बैठकर अपने नन्हें लाल-लाल कर से मेरी ठुड्डी पकड़कर, मेरे मुख की ओर मुख करके कहता है- 'भुआ!' काई इसे खिझावे, चिढ़ावे या रुलावे- मुझे अत्यन्त असह्य है। यह तो केवल स्नेह करने के लिए है; किंतु क्या करूँ- सब तो मेरी नहीं सुनते। ये बालक तो सुनते ही नहीं हैं। अभी उस दिन कन्हाई दौड़ा-दौड़ा आया। तमक आया था इसका सुन्दर मुख और कमल-लोचन भरे-भरे थे। आकर भाभी से बोला- 'मैया! मुझे दाऊ दादा चिढ़ाता है।' |
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