नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29. अभिनन्द ताऊ-सेवा-सम्मान
बडे़ भाई तो उपनन्दजी हैं; किंतु पता नहीं क्यों महर्षि शाण्डिल्य मुझे प्रारम्भ से महानन्द कहते हैं। सम्भवत: मेरी कुछ अधिक ही ऊँची और स्थूल काया की महानता ही इसका कारण होगी। महर्षि कहने लगे तो सबने यही नाम ही बना लिया। जैसे मेरी पत्नी सुषमा को शरीर के भारीपन के कारण मेरी माता ने पीबरी कहना प्रारम्भ किया तो उसका यह नाम ही पड़ गया। पिता ने मुझसे छोटे भाई नन्द को व्रजपति बनाकर हम सबकी सम्मति का सम्मान ही किया था। बड़े भाई उपनन्दजी की प्रबन्ध में अभिरुचि ही नहीं है और मुझसे तो अपने गोष्ठ का भी प्रबन्ध नहीं होता। उसे भी दूसरे ही भाई देखते हैं। हम पति-पत्नी परम सन्तुष्ट थे, यह कहना सत्य नहीं होगा। मुझे तो कोई कामना थी तो यही कि छोटे भाई नन्द को एक कुमार हो जाए- व्रज को एक युवराज मिल जाय; किंतु पत्नी के मन में सन्तोष आया तब जब उसकी काया पर्याप्त स्थूल हो गयी और हम दोनों की आयु सन्तान प्राप्ति की सीमा पार कर चुकी। सृष्टिकर्त्ता का भाग्य-विधान और प्रकृति के सामान्य नियम, शरीर की आयु-सीमा का क्या अर्थ रह जाता है जब कोई महापुरुष कुछ करना ही सोच ले। सन्त का संकल्प सृष्टि के नियमों में सदा परिवर्त्तन करने में समर्थ है। भगवती पूर्णमासी गोकुल पधारीं कृपा करके और उन अनुग्रहमयी ने एक दिन हम पाँचों ही भाइयों की पत्नियों को आशीर्वाद दे दिया गोद भरने का। मैं तो फिर भी बड़े भाई से डेढ़ वर्ष छोटा हूँ; बड़े भाई उपनन्दजी के यहाँ भी तुंगी भाभी ने दो वर्ष के भीतर दो पुत्र पाये- ऋषभ और देवप्रस्थ। मेरा बड़ा पुत्र विशाल ॠषभ से सत्ताइस दिन छोटा है और छोटा तेजस्वी देवप्रस्थ से केवल पाँच दिन पीछे आया। हम चारों भाई ही नहीं, पूरा गोकुल-सम्पूर्ण व्रज जिसके लिए उत्सुक था, उन व्रजराज को केवल एक कुमार मिला भगवती के आशीर्वाद से। अवश्य ही रोहिणी भाभी के दाऊ ने हमारे नन्हें व्रज-युवराज के अग्रज का उचित स्थान पूरा कर दिया है। |
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