नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
46. साधु-सेवक-वत्स चारण
यह नीलमणि- यह कभी अंक में आ बैठता है और अपने दोनों कर मेरे उज्ज्वल श्मश्रु के केशों में लगाकर अंगुलियाँ नचाता है। इसे कभी कोई पुष्प चाहिये, कभी कोई पक्षी या बछड़ा पकड़ना है और कुछ नहीं तो कर पर या कन्धे पर बैठी तितली उड़ानी है। मेरे समीप आ खड़ा होगा अथवा अंक में आ बैठेगा। मुझे भी तो और कोई कार्य नहीं है। नन्दराय तो चाहते हैं कि बैठा रहूँ मैं और वे मेरी सेवा करें। हँसी आती है उनके मुख से यह सुनकर- 'चाचा! तुमने बहुत सेवा की है हम सबों की। अब तो हमको कुछ अवसर दो।' मेरी काया क्या इतनी दुर्बल हो गयी? मैं अब भी किसी तरुण गोप से अधिक भार उठा सकता हूँ और उससे दूर तक बिना थके जा सकता हूँ; किंतु मैं कुछ करने लगूँ तो यशोदा बहू आकर हाथ पकड़ती है- 'चाचा, आप तो अब यह रहने दो।' मेरी यह ब्रजेश्वरी बहू और मथुरा से आयीं रानी बहू तो महारानी हैं, उनकी समता कोई स्त्री संसार में क्या करेगी। उन्होंने समझा कि मैं बैठा-बैठा तो बहुत बूढ़ा हो जाऊँगा। उन्होंने मुझे कार्य दे दिया- 'चाचा! ये आपके राम-श्याम बहुत चञ्चल हैं। इन्हें आप सम्हालते रहें!' बालक चञ्चल तो होंगे ही, कन्हाई कुछ अधिक ही चपल है। मैं तब भी इसे सम्हाल नहीं पाता था, जब यह घुटनों सरकता था और अब तो दौड़ने लगा है। वैसे तो सम्मुख ही खेलता रहता है; किंतु कब कहीं भाग निकलेगा, पता नहीं रहता। एक बार नेत्रों से ओझल हो जाय तो मैं कहाँ इसे ढूँढ़ पाता हूँ। ढूँढ़ भी लूँ तो इसे रोकना संभव है? यह केवल ब्रजेश्वरी बहू की ही कुछ मानता है। 'साधु दाऊ!' श्याम यह कहकर जब मेरी ओर देखकर हँस देता है, मुझे अपने शरीर की ही सुधि नहीं रह जाती। इस मोहन की किसी बात को कोई भी क्या अस्वीकार कर सकता है? |
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