नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
35. यमलार्जुन
लोग कहते हैं- 'सब गुण स्वर्ग में निवास करते हैं, लेकिन यह मायामोहित चाटुकार मानव की ही मान्यता है। मानवों में जो महत्तम हैं, वे जानते हैं कि अर्थ अनेक अनर्थों का मूल है। भगवती लक्ष्मी उलूक-वाहिनी हैं। यदि सम्पत्ति के साथ श्रीहरि के चरणों में श्रद्धा न रही तो अनिवार्य रूप से सम्पत्तिशील, सद्गुण सदबुद्धि के विनाश का कारण बनती है। मदान्ध होकर व्यक्ति अनेक व्यसनों का आखेट बन जाता है। हमें भले सौन्दर्य नहीं मिला था, धनाध्यक्ष का पुत्रत्व पाकर हम अपने को सर्वश्रेष्ठ तो मानने ही लगे थे। यक्षों को सृष्टिकर्त्ता ने पर्याप्त अधिक शारीरिक शक्ति दी है। जरा-रोगादि से मुक्त रखा है। बराबर बनी रहने वाली युवावस्था, शरीर बल, लोकपाल के पुत्रत्व का पद, सबने मिलकर हम दोनों को मदान्ध बना दिया था। हमारे लिए पानी पेय ही नहीं रहा था। क्योंकि क्षुधा-पिपासा सुरों तथा उपदेवों को भी सताती नहीं। मदिरा को हमने पानीय बना लिया था। सुरों को सुधा मिली, यज्ञ में सोमपान प्राप्त होता है तो असुरों को भी समुद्र-मन्थन से ही तो वारुणी प्राप्त हुई है। यक्ष उपदेवता हैं- असुरों में ही आते हैं। राक्षस हमारे छोटे भाई ही तो हैं। सुरापान का नित्य साथ है स्त्री-सेवन से और यक्षराज के पुत्रों के लिए अप्सरा अनुपलब्ध रह नहीं सकती। हिमालय तपस्थली है, मुनियों का अनादि उपासना स्थान और उमा-महेश्वर की विहार भूमि; किंतु हमारे मानस को तो उसकी सात्त्विकता ने स्पर्श ही नहीं किया। पिता भगवान महेश्वर के सेवक- ऐसे सेवक कि आशुतोष प्रभु उनको सखा मानते हैं। हम दोनों ने उन भूतनाथ के गणों का सख्य, स्वभाव अपनाया। श्रीहरि-चरण समुद्भवा, शिवशिरसि विहारिणी, कलिकल्मषनाशिनी, पुण्य-सलिला मन्दाकिनी को हम मदान्ध मूर्ख अपनी जल-क्रीड़ा से कलुषित करने लगे थे। कर्मयोनि यक्ष भले न हो; किंतु अत्युग्र कर्म तो सुरेन्द्र को भी भोग-भ्रष्ट करता ही है। स्त्रियों का एक समुदाय ही हमारे साथ था और हम दोनों भाइयों ने भरपूर उत्कट मदिरा पी रखी थी। उन्मद जल-क्रीड़ा करने उतर गये थे मन्दाकिनी में। सब सर्वथा नग्न- उस हिमप्रदेश में कोई समीप आवेगा जिसका संकोच करना पड़े, ऐसी कोई सम्भावना नहीं थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ देह
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