नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
76. राहु-शंखचूड़-वध
हम छाया-सुत- पृथ्वी और शशि को छाया से समुदभूत छाया-शरीरी, छायाग्रह हैं, अतः छाया के सामान ही हमारा स्वभाव है। जिस ग्रह के साथ रहें, जिसके स्थान में रहें, वैसा ही हम फल देते हैं। हमको क्रूर अथवा असुर कहकर आप हमारी निन्दा भले कर लें; किंतु हमारा प्रबल प्रभाव केवल अशुभ ही तो नहीं होता। हमारे समान शुभ प्रभाव भी सानुकूल होने पर दूसरा ग्रह देने में कहाँ समर्थ है। मैं श्रीकृष्ण के जन्मांग में तृतीय स्थान में हूँ। सब ज्योतिर्विद जानते हैं कि तृतीय में स्थित राहु सम्पूर्ण अरिष्टों का वारक होता है। इस पर वहाँ तो मैं उच्च के वृहस्पति के साथ हूँ। उच्चस्थ शशि के गृह में हूँ। इसलिए मेरा शुभ प्रभाव गुरु से अधिक गौरवमय रहेगा। मेरा कबन्ध केतु भी उच्च के मंगल के साथ, उच्चस्थ शनि के गृह में है। नवमस्थ केतु वैसे भी सर्प-बन्धन-विनिर्मुक्त करता है। उच्च के गुरु की दृष्टि प्राप्त करके, उच्चस्थ वैराग्य के विधाता शनि के गृह में, उच्च के भौम के साथ केतु श्रीकृष्ण के स्वरूप को ही स्पष्ट करता है। वह कहता है कि इन श्रीव्रजराजकुमार का स्मरण करने वाले को वह मोक्ष-वितरण करता रहेगा। मेरी और सुरगुरु की भी पञ्चम-पूर्ण दृष्टि प्राप्त है नन्दनन्दन के जाया स्थान को। देवगुरु उनकी सब प्रेयसियों को परम प्रेमनिष्ठा रखेंगे; किंतु मैं तो कृष्णचन्द्र को यहाँ परम स्वच्छन्द करता हूँ। वे जिसे चाहें अपनावें, उन सबकी सुरक्षा करेगा राहु। सर्वतन्त्र स्वतन्त्र सर्वसमर्थ पुरुषोत्तम ने पृथ्वी पर पदार्पण करके हम ग्रहों को अपने आविर्भाव काल की कुण्डली में स्थान देकर सम्मानित किया। उन्हें किसी की सेवा-सहायता अपेक्षित नहीं है; किंतु हम अपने स्थान के अनुरूप व्यवहार सामान्य व्यक्ति के साथ भी करते हैं; ये सर्वेश्वर आये हैं हमारे प्रभाव क्षेत्र में तो इनकी सेवा में हम प्रमाद कैसे करेंगे। मैं दैत्य हूँ अतः दैत्य-दानव-राक्षसों से मेरी सहज सहानुभूति है। जानता हूँ कि यक्ष राक्षसों के अग्रज हैं; किंतु ऐसे तो देवता भी हम दैत्यों के अनुज हैं। कुबेर जब से लोकपाल होकर देवत्य प्राप्त हुए, यक्षों से हम सबकी सहानुभूति समाप्त हो गयी। यह सहानुभूति होती भी तो मैं बाध्य हूँ अपने ग्रहस्वरूप में सृष्टिकर्त्ता-प्रदत्त अपने स्वभाव के अनुसार प्रभाव प्रकट करने को। कुबेर के अनुचर शंख-चूड़ को मेरी कृपा प्राप्त करने का कोई स्वत्व नहीं रह गया था। वह तो मरता ही, श्रीकृष्ण की मुष्टिका उसके मस्तक को विदीर्ण करने का निमित्त बन गयी। |
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