नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
41. विश्वकर्मा-नन्दगाँव
सुरों की सेवा, स्वर्ग के सौधों की सज्जा सब मैंने की; किंतु सर्वेश्वर के श्रीचरणों की सेवा का अवसर न मिले तो मेरा विश्वकर्मा होना ही व्यर्थ हो गया। मैं केवल विलासी सुरों के विनोद का ही माध्यम बना रहा; किंतु व्रज में तो भगवती योगमाया की अनुकम्पा के बिना प्रवेश ही प्राप्त नहीं हुआ करता। गोकुल में मैं कुछ नहीं कर सका। किसी गोप ने गृह-निर्माण के समय मेरा स्मरण भी कर लिया होता तो उसके करों को अव्यक्त सान्निध्य देकर मैं अपनी कला को कृतार्थ मान लेता; किंतु यह भी कहाँ हुआ। गोकुल तो व्यक्त हो गया सीधे धरा पर और भगवती सिन्धु-सुता स्वयं जब वहाँ सजावट करने उपस्थित हो गयीं, मैं किस गणना में रह गया था। सर्वेश्वरेश्वर श्रीकृष्णचन्द्र गोकुल से स्वजनों के साथ वृन्दावन पधारने लगे, तब मुझे लगा, अब भी यदि मुझे सेवा का अवसर नहीं मिलता तो फिर कभी नहीं मिलेगा। मैं अत्यन्त आर्त्त होकर पुकारने लगा था उन आद्या अनुकम्पा स्वरूपिणी योगमाया को। 'वत्स! व्रज-मण्डल में कृत्रिम अथवा नूतन कोई निर्माण सम्भव नहीं!' मुझे सर्वमंगला ने आश्वासन दिया- 'यहाँ तो नित्य धाम को केवल व्यक्त होना है। तुम्हारी कला को स्वयं श्रीकृष्ण अवसर देंगे आगे द्वारिका निर्माण के लिए और इन्द्रप्रस्थ में भी अपने सुहृद पाण्डु-पुत्रों के भवन बनाने के लिए। यहाँ की नित्य धरा का तुम केवल दर्शन कर सकते हो।' मैं मूर्ख था। भगवती योगमाया स्वयं यदि यवनिका न उठा दें, इस नित्यधाम का स्वरूप सुर भी कैसे समझ सकते हैं। मैं इस नन्दीश्वर गिरि तथा इनके पार्श्व-परिसर से- इनकी महिमा से सर्वथा अपरिचित यहाँ निर्माण का अवसर चाहता था? कितने बड़े अपराध से बच गया, यह अब समझ सका हूँ। कितनी अदभुत बात है। सामान्य मानव की क्यों चर्चा करूँ- सुर भी समझ नहीं सकते कि देवदेवेश्वर भगवान विश्वनाथ के साक्षात वाहन यहा शिलामूर्ति बनाये घुटने मोड़े बैठे कितने युगों से तपोनिरत हैं। इसलिए कि श्रीनन्दनन्दन का स्पर्श सुलभ हो जाय। मैं इनके श्रीविग्रह पर छेनी-हथौड़ी का प्रयोग करके निर्माण करने की सोचता था- कितना अशुभ संकल्प! साष्टांग प्रणिपात किया मैंने तो मुझे संकेत से समीप बुला लिया उन्होंने। सदय दृष्टि से देख लिया। हम सुरों को व्यक्त वाणी की आवश्यकता परस्पर भावाभिव्यक्ति के लिए तो होती नहीं। संकल्प की भाषा ही हमारी भाषा है। मेरे मन में कुतूहल उठ रहा था। संकल्पी की भाषा में ही मुझे सन्तुष्ट कर दिया उन साक्षात् धर्म के श्रीविग्रह ने। |
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