नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
11. धात्री मुखरा-जन्मोत्सव
कभी ऐसा नहीं हुआ कि मुखरा प्रसूति-कक्ष में असावधान हो जाय और इस बार मुझे भी नींद आ गयी! वैसे मैंने कोई प्रमाद नहीं किया था। व्रज को युवराज मिलने वाला था और मैं प्रमाद करती! प्रसूति-कक्ष मैंने पूर्णत: सजाया था श्वेत पुष्पों से और विघ्न-वारण के सब प्रयत्न किये थे। अखण्ड प्रदीप था सर्षप-तैल का, तिन्दुक काष्ठ की नित्य प्रज्वलित अग्नि में धूप दी गयी थी और ठीक स्थानों पर शस्त्र रखे थे मैंने। परिचर्या के उपयुक्त सामग्री, औषधियाँ-सब संग्रहीत थीं। अर्ध रात्रि के पश्चात ही तीव्र वर्षा होने लगी। मैं थकी थी। तनिक भित्ति से सिर टिकाकर बैठी और सो गयी। मैं वृद्धा सो गयी, इतनी सदा की सावधान और ठीक समय सो गयी- यह शल्य मैं कैसे निकाल दूँ। मुझे कोई कुछ कहनेवाला नहीं, व्रजराज भी मुझे मान देते हैं; किंतु मैं अपने इस अक्षम्य प्रमाद को भूल नहीं पाती हूँ। प्रहरी गोप सो गये- बड़ी बात नहीं थी; पर प्रसूता भी सो जाती है, यह मैंने कभी सुना भी नहीं था और यहाँ यशोदा रानी ही सो गयीं। बेचारी के लिए प्रथमावसर था और मैंने औषधियाँ भी ऐसी दी थीं कि पीड़ा न हो। सब सो गये सो ठीक, पर मुझे तो नहीं सोना था। जगाया मेरे इस जीवन-प्राण नवजात ने ही। यह सहस्र-सहस्र वर्ष जीता रहे और सदा सुखी रहे। यह आया और सब खुर्राटे लेकर सो रहे थे। इतने दिनों की प्रतीक्षा, इतनी मनौतियाँ, इतनी प्राणों की पुकार-लेकिन यह आया तो कोई इसे देखने-सम्हालने वाला तक नहीं था। यह व्रजराज कुमार अब सदा देखे-सम्हालेगा सबको और यही सब सोने वालों को जगाया करेगा, यह तो इसने जन्मते ही सूचित कर दिया है। किसी को यह पता नहीं कि यह रात्रि में उत्पन्न कब हुआ। जातकर्म के समय महर्षि ने मुझे बुलवाया तो लगा कि आज मैं क्षमा नहीं की जाऊँगी। महर्षि महान दयासागर हैं। मैं हाथ जोड़कर काँपती खड़ी हुई तो उन्होंने अभय दे दिया- 'मुखरा! आज तो आनन्द का अवसर है! आज त्रिभुवन को अभय करने वाला आया है। तू भीत क्यों है?' कठिनाई से मैं गिड़गिड़ाते हुए कह सकी किसी प्रकार कि मैं सो गयी थी- सब सो गये थे। मेरी समझ में ही नहीं आता था कि लाल का जन्म-लग्न कैसे निश्च्ति होगा। |
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