नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. भगवती पूर्णमासी-मधुमंगल
'मेरा जन्म वाराणसी में हुआ। इस समय जो उज्जयिनी में सुप्रसिद्ध विद्वान महर्षि सान्दीपनि हैं, वे मेरे अनुज हैं। सुना है कि मैं अबोध बालिका थी, तभी पिता ने अपने किसी मित्र के कुमार को मेरा वाग्दान किया था; किंतु उसे सार्थक होने का अवसर आने से पूर्व ही वे ब्राह्मण-कुमार परलोक पधारे। मेरे लिए प्रसाद-स्वरुप पालने के लिए अपनी प्रथम पत्नी का एक शिशु छोड़ गये थे। 'भाई इस मधुमंगल को ले आये।' भगवती ने अपने साथ के लगभग पाँच वर्ष के कर्पूर गौर, कुछ लम्बे मुख, अरुणाभ लोचन, ऊर्ध्वपुण्ड्रांकितभाल, श्वेतवसन, लम्बोदरकुमार की ओर संकेत किया- 'तब यह केवल एक वर्ष का था; किंतु वय तो इसकी इच्छा के वश में है। बहुत वर्षों तक यह दो वर्ष की अवस्था का बना रहा और अब इस पाँच वर्ष की वय से बड़ा होना इसे स्वीकार नहीं। नहीं जानती कि यह आगे और छोटा बनेगा अथवा बढ़ना चाहेगा। वय मेरी भी भगवान विश्वनाथ के वरदान से मेरे वश में है। साधना के, संयम के उपयुक्त यह वार्धक्यारम्भ का श्वेतकेश स्वस्थ शरीर मुझे उत्तम लगता है, अत: यह ऐसा ही रहता है। इसमें विकार नहीं आवेगा- यह आशुतोष ने मुझे आशीर्वाद दिया। भाई ने शिशु को लाकर देते हुए कहा था- 'बहिन! यह असामान्य शिशु है। यह परमपुरुष का नित्य सखा जन्मसिद्ध है। यह तुम्हारा भी आश्रय रहेगा, इसे क्या आश्रय देना है।' सचमुच यह मेरा भी आश्रय ही है। इसका मधुमंगल नाम सर्वथा सार्थक है। इसके मुख से कभी कटु शब्द सुने नहीं गये। व्यंग बहुत करता है; किंतु अत्यन्त मधुर व्यंग। अप्रसन्न होकर भी किसी को कहेगा तो इसके मुख से निकलेगा- 'तेरा कल्याण हो।' |
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