नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
82. विप्रपत्नी ऋतम्भरा-बाबा लौटे
व्रज में तो कृष्णचन्द्र के मथुरा की ओर चलते ही विपत्ति ने अपना बसेरा बना लिया। मैं किसी को क्या बचा पाऊँगी। गायें, वृषभ वन में भागते फिरते हैं। सेवक कहते हैं कि वे चरते नहीं, अपने गोपाल को ढूँढ़ते दौड़ते हैं और बार-बार गोष्ठ में लौट आते हैं। ऐरावत जैसे वृषभ और हथिनियों जैसी गायें कंकाल हुई जा रही हैं। 'कन्हाई आज आवेगा' जैसे सेवकों की यह बात पशु भी समझ लेते हैं। गायें यह कहकर पुचकारने पर दूध दे देती हैं और यही तो व्रज में सबका जीवनाधार आश्वासन है। इसी के आधार पर गोपियाँ दूध गरम करती हैं, दधि जमाती हैं और मन्थन करके नवनीत[1] निकालती हैं। 'नवनी......' पूरा नवनीत भी यशोदा नहीं बोल पातीं। वे दधिभाण्ड से माखन लोंदा उठाती हैं और नवनी कहकर नीलमणि कहते-कहते मूर्च्छित होने लगती हैं। मुझे रोहिणी रानी को अब उन्हें पूरा दिन सम्हालना पड़ता है। सबसे कठिन सम्हालना है बरसाने की बालिकाओं को। इस वियोग ने उनका सब संकोच विदा कर दिया है। वे अब नन्दगृह को आश्रय मानने लगी हैं। सब सबेरे ही दौड़ी आती हैं। बिना कहे भी सब जानते हैं कि वे यह जानने देखने आती हैं कि व्रजराजकुमार आये या नहीं। दिनभर बनी रहती हैं- 'अब आते होंगें, अब आवेंगें!' यही आशा तो सबको जीवन दे रही है। इन बालिकाओं को बहलाने-समझाने में दिनभर यशोदा अपनी व्यथा भूली रहती हैं। ये भी इनके अंक में मुख छिपाकर चाहे जब फफककर रोने लगती हैं, 'वे अब नहीं आवेंगे!' मैं रुष्ट होने का प्रयत्न करती हूँ- 'ऐसी बात मुख पर मत लाओ! मन में भी मत सोचो! हमारा नवघन-सुन्दर आज आवेगा।' 'आज आवेगा! अब आता होगा!' मैं बार-बार द्वार पर आती हूँ तो यशोदा, बालिकाएँ मेरे पीछे लगी चली आती हैं। पथ पर दूर तक साथ आती हैं सब। दिन किसी प्रकार इस प्रतीक्षा में व्यतीत हो जाता है। 'आज नहीं आवेंगे, अन्धकार हो जाता है रात्रि का तो बड़ी निराशा लेकर बालिकाएँ अपने गृहों को विदा होती हैं। दिन में तो इन सबों को श्रृंगार करने में, इनको कुछ खिला देने में समय कट जाता है। रात्रि काटना कठिन हो जाता है। निद्रा जैसे श्याम के साथ ही व्रज से चली गयी। युगों के समान लगती है रात्रि। बड़ी कठिनाई से कट पाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ माखन
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