नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
20. कुबला चाची-शैशव
सबके शिशु ऐसे ही हैं। देवरानी अतुला का तोक- यह सबसे छोटा नीलमणि की दूसरी मूर्त्ति तो मानता ही नहीं, मेरा अंशु तो फिर भी उससे एक महीने बड़ा है। अतुला का भद्र तो रात्रि को भी वहीं सोने लगा है; किंतु तोक- बीस दिन का शिशु भी कहाँ मानता है। वह भी सबेरे ही वहाँ पहुँचना चहता है। ये शिशु मान भी जायँ तो हम सबसे रहा जायगा? घर के कार्य मैं कैसे कर पाती हूँ, मैं ही जानती हूँ। वहाँ पहुँच जाती हूँ तब अपने अंशु को भी स्तनपान करा पाती हूँ। यहाँ तो वह नीलमणि ही नेत्रों के आगे दीखता रहता है। वह उस भूमि-स्पर्श के दिन ही बैठ गया था। व्रजेश्वरी उसे बैठाना ही नहीं चाहती थीं। मेरे बहुत कहने पर बैठाने लगीं। बार-बार मुझे स्मरण दिलाना पड़ता था। बैठाने पर कुछ क्षण बैठा रहने लगा। उसे भी इतने सखा मिल गये। ये सब सटकर समीप बैठने लगे तो वह भी बैठने लगा। कन्हाई स्वयं उठकर बैठ गया उस दिन तो कितना बड़ा उत्सव व्रजेश्वरी ने किया। तब उन्होंने कहा- 'कुबला! तू ठीक कहती है बहिन! इसको बैठने का अवसर दिये बिना इसके अंगों में शक्ति नहीं आवेगी। आज का दिन तो तेरी सम्मति से देखने को मिला है।' उत्सव तो उचित है; किंतु व्रजेश्वरी आज मुझे ही उपहार देने लगीं। वे बड़ी है; किंतु कहीं अपनों को भी भेंद दी जाती है। सब बालकों का संस्कार साथ-साथ होता है; किंतु अपने पुत्र की ही न्यौछावर मिलने लगे माता को तो? मुझे बुरा क्यों लगेगा? मैंने तो अञ्चल फैलाकर ले लिया। व्रजेश्वरी उचित ही तो कहती हैं कि अर्जुन और अंशु दोनों उन्हीं के पुत्र हैं। मैं तो उनके इन पुत्रों को दूध पिलाकर पालने-वाली धात्री हूँ। अतुला तनिक तेजस्विनी है। उस दिन उसने कह दिया- 'जीजी! लाओ, तुमने धाम बना लिया मुझे भद्र और तोक की तो न्यौछावर मैं लिए लेती हूँ; किंतु कन्हाई को बड़ा होने दो। वह अपनी इस छोटी चाची का ही रहेगा।' 'वह बड़ा होकर क्या कुछ विशेष बनेगा?' व्रजेश्वरी का कण्ठ भर आया था- 'वह तो अब भी तेरा ही है।' |
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