नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
65. महर्षि पुलस्त्य-गोवर्धन-धारण
मैं सहज भाव से भगवान शशांक-शेखर का सेवक हूँ। उन धूर्जटि का धाम कैलास तो पर्वत है; किंतु उनकी प्रियपुरी वाराणसी में कोई पर्वत ही नहीं। पार्वती-वल्लभ की पुरी को मैं इस पावनतम पर्वत से अलंकृत कर सकूँ तो अपने आराध्य पुरारि का एक प्रिय कार्य करूँगा, यह सोचकर मैं शाल्मली द्वीप में पहुँच गया। गोवर्धन की छटा देखने ही योग्य थी। मन मुग्ध हो गया। मैंने माँगा द्रोणाचल से उसे काशी में ले जाकर स्थापित करने के लिए। प्रिय पुत्र के वियोग से व्यथित होना स्वाभाविक था; किंतु मुझ जैसे अतिथि की आशा भंग करके वह शाप की शंका से भी व्याकुल था। अन्ततः उस पर्वतोत्तम ने पुत्र को आज्ञा दे दी- 'वत्स! भारत भगवान की प्रिय भूमि है। ऋषि-मुनियों की तपोभूमि बनने का सौभाग्य मिल रहा है, अतः महर्षि के साथ पधारो!' 'यदि महर्षि मुझे मध्य में अपने कर से न त्यागें तो मैं इनके साथ चलूँगा।' गोवर्धन ने कहा। मैंने मध्य में हाथ से न उतारने का वचन दिया और उस आठ योजन लम्बे, पाँच योजन चौड़े, दो योजन ऊँचे पर्वत को आदरपूर्वक दक्षिण हस्त पर उठाकर चल पड़ा। पुत्र-वियोग से व्याकुल द्रोणाचल भी मेरे पीछे-पीछे चलते चला आया भारत की उत्तरी सीमा हिमालय तक। कैलास के पार्श्व में पहुँच कर मुझे अपने वचन का विस्मरण हो गया। मैंने पर्वत को हाथ से उतारकर अलकनन्दा के उद्गम में स्नान किया और अपने आराध्य गंगाधर प्रभु के पादपद्मों में प्रणिपात करने पहुँच गया। लौटकर पर्वत को उठाने लगा तो वह फिर नहीं उठा। मेरे सब प्रयत्न निष्फल हो गये तो मैंने क्रोध में आकर शाप दे दिया- 'तू प्रतिदिन तिल प्रणाम क्षीण होता जायगा और अष्टाविंशति कलि के पूर्ण प्रभाव में आने पर पृथ्वी पर नहीं रहेगा।' शाप देकर मैं चला तो आया; किंतु गोवर्धन से मेरा स्नेह समाप्त नहीं हुआ। उस पर मैं अपना स्वत्व मानता हूँ, अतः जब भी कोई उसे उठाता है, मेरी दृष्टि बलात उधर चली ही जाती है। त्रेता में जब मर्यादापुरुषोत्तम पधारे पृथ्वी पर और मेरे ही पौत्र रावण का उद्धार करने पयोधि-बन्धन का निर्णय किया उन्होंने, उनके प्रधान सेवक श्रीपवनपुत्र द्रोणाचल के इस पुत्र को उठाने पहुँच गये। यह काई सामान्य पर्वत है कि शक्ति लगाकर उठाया जा सके; किंतु हनुमान ने प्रलोभन दिया- 'श्रीराघवेन्द्र का दर्शन करा दूँगा' और यह उठ गया। इसे लेकर वे व्रज में पहुँचे तो कपियों ने रघुनाथजी की आज्ञा सुना दी- 'जो भी पर्वत उठाये जहाँ हो, अब पर्वत वहीं रख दे। सेतुबन्ध सम्पूर्ण हो गया।' |
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