नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. मल्लिका मौसी-सर्वप्रिय
नीलमणि मुझे माँ कहता है। मातृस्वसा- मा-सी मौसी नहीं, माँ कहता है मुझे और जब से पैरों चलने लगा है, एक बार मेरे आँगन में अवश्य आ जाता है प्रतिदिन। घुटनों सरकता था तब; और तब भी सरकता हुआ आकर मेरे अंक में बैठ जाता था। गोकुल में कोई नहीं है जो इसके जन्म से ही जीजी के आँगन में जमी न रहती हो दिन-भर। इसे देखे बिना तो चैन ही नहीं पड़ता। गृह के कार्य किसी प्रकार निवटाओ जल्दी-जल्दी और जीजी के समीप भाग जाओ। जब तक कन्हाई चलकर मेरे घर नहीं आने लगा, मेरी तो यही दिनचर्या रही। क्या करूँ, मरे इस घर में कोई जेठानी, देवरानी नहीं और सासजी मेरे ससुराल आने के पश्चात शीघ्र परलोक पधारीं। अकेली हो गयी अल्पवय में ही अपने इस घर में। गोप का गृह है। गायों की सेवा, गोरस की व्यवस्था, स्वामी के लिए भोजन बनाना सभी कुछ करना पड़ता है। मन जीजी के अंकधन में भले लगा रहे तन तो घर के आवश्यक कार्यों में लगाये ही रहना पड़ता है। कौन जाने नन्दनन्दन मेरी व्यथा को कैसे जान गया है। मैं जब बहुत व्याकुल होती हूँ, वह कहीं न कहीं से रुनझुन नूपुर बजाते, किंकिणी का कल नाद सुनाते, हँसता, किलकता आ ही जाता है। तब इसने बोलना प्रारम्भ ही किया था। एक-एक, दो-दो अक्षर अटकता, तुतलाता बोलता था। मैं गयी और जीजी के समीप बैठ गयी। यह आँगन में सखाओं के मध्य बैठा खेल रहा था। मुझे देखते ही घुटनों के सहारे सरकता आया और मेरी गोद में आकर मेरे मुख की ओर मुख उठाकर, अपना नन्हा कर मेरी ठुड्डी पर रखकर बोला-'माँ!' मेरा तो रोम-रोम अमृत में भीग गया। मैंने इसे हृदय से लगा लिया। कठिनाई से मुख से 'लाल!' निकला भी या नहीं, कह नहीं सकती। 'माँ! दू?' यह जन्म से चपल है। नटखट है। कब क्या करेगा, कोई नहीं जानता। इसने फिर मेरे मुख की ओर मुख किया और कपोल पर कर रखकर कहा। जीजी हँस पडीं। मैं लज्जा से क्या कहूँ। अभी भी मैं बालिका ही तो हूँ; किंतु इसने तो मेरे अञ्चल में मुख छिपा लिया था इतनी देर में और अपने करों से कञ्चुकी हटाकर वक्ष में मुख लगा लिया था। |
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