नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
90. भद्रसेन
मथुरा के लोग भी कैसे हैं? हमारे गोपाल को सब भगवान कहने लगे। मेरा तो उस महानगर में मन ही नहीं लगता था। दाऊ दादा और श्यामसुन्दर भी दिनभर लोगों की व्यवस्था में ही व्यस्त रहते थे। हम सबसे केवल मिल जाया करते थे। ऐसे में कैसे मन लगे। बाबा ने लौटने का निर्णय किया। हम सब वृन्दावन आ गये। हमारा कन्हाई बहुत चतुर है। मथुरा से हम चलने लगे तो मुझसे बोला- 'यहाँ के लोग मुझे छोड़ना नहीं चाहते। तुम सब चलो, मैं इन लोगों को नगर में ले जाकर फिर चुपचाप आ जाऊँगा। मार्ग में ही मिलूँगा तुम्हें।' सचमुच वह मार्ग में ही आकर हमारे छकडे पर बैठ गया। मैंने तो देखा भी नहीं कि किधर से आया। जैसे ही छकड़े व्रज की सीमा में पहुँचे, कहीं लता-कुञ्ज की आड़ से निकल आया होगा। मथुरा के लोगों को उसने अच्छा छकाया। मथुरा से वे उद्धव आये थे। मथुरा के लोग बहुत विद्वान होंगे। उद्धव भी बड़ी-बड़ी बातें करते थे; किंतु मैया कहती है कि बहुत पढ़कर कभी-कभी व्यक्ति पागल हो जाता है। बहकी-बहकी बातें करने लगता है। उद्धव मुझे ऐसे ही लगे। कहते थे- 'कृष्णचन्द्र ने उन्हें भेजा है। उनका सन्देश लेकर आये हैं। वे भी कभी आवेंगे व्रज में।' कन्हाई का ही पटुका, वनमाला वे पहिने थे। कहीं मार्ग में हमारा गोविन्द मिल गया होगा उन्हें। इसे तो किसी को भी अपने वस्त्र, माला, आभूषण पहिनाकर सजा देने की धुन रहती है। उद्धव को सजाकर परिहास किया होगा कि वह मथुरा जा रहा है और उद्धव उसका सन्देश पहुँचा दें वृन्दावन। बहुत सीधे-भोले थे उद्धवजी। उन्हें क्या पता कि नन्दलाल कितना नटखट है। उद्धव जब तक यहाँ रहे, उनसे कन्हाई कभी मिला नहीं। मिलता भी कैसे, उद्धव तो कभी हमारे साथ गाय चराने आये नहीं। वे बलिकाओं के साथ ही भटकते रहे इधर-उधर। पता नहीं इन नगर के लोगों को गायें चराना आता भी है या नहीं। हम सब बाबा के साथ गये कुरुक्षेत्र ग्रहण-स्नान करने। कन्हाई ने कहा था कि वह कुछ आगे जाएगा। आगे जाकर जो वह यादवों का अग्रणी बन गया। हम सबका ऐसे स्वागत करने आया जैसे सदा उन लोगों के साथ ही रहता हो। |
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