नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. विशाखा-परिचय
'स्वामिनी!' एक बार सौष्ठवा ने कहा था। यह उसी समय नेत्रों से बिन्दु टपकाने लगी- 'सखि! मैंने ऐसा क्या अपराध किया है कि तू मुझे अपने से इतनी दूर कर रही है? सच बता, राधा तेरी सेविका बनकर रहे तो तू सन्तुष्ट होगी? सौष्टवा ने इसके पद पकड़ने की भूल कर ली। परिणामत: यह उसके पैर पकड़कर रोने लगी और इसके कर्णस्पर्शी खञ्जनमञ्जु दृगों में अश्रु देखना क्या किसी के बस का है? 'स्वामिनी- जन्म-जन्म की स्वामिनी मेरी। मैं सदा-सदा की इसके श्रीचरणों की दासी!' यह बात हृदय अहर्निशि रटता है तो रटे; किंतु मुख पर यह बात आनी नहीं चाहिये। मुख से तो इसे सखि ही कहना है और कोई- सम्मान प्रदर्शित करो तो रूठी धरी है। सेवा भले ले लो, उसके लिए तो सदा समुत्सुक ही रहती है; किंतु इसके सुकुमार कर तो अंगराग लगाते भी अत्यन्त अरुण हो उठते हैं। छोटे भैया सुबल को अपने सखा की प्रशंसा इतनी प्रिय है कि वह यह भी नहीं देखता कि उसकी यह अनुजा कितनी कोमल-हृदया है। इसके सम्मुख वह 'मेरा सखा ऐसा, मेरा सखा वैसा' कहता ही रहता है। कुशल यही है कि प्रभात होते ही चला जाता है वन में वत्सचारण के लिए और मध्याह्न-भोजन नन्दग्राम में अपने सखा के साथ करके सायंकाल अन्धकार होने पर लौटता है। वह भी तब लौटता है जब कोई लेने के लिए भैया भेजती है। बड़ा भैया श्रीदाम भी कम स्तवन नहीं करता अपने श्याम का; किंतु सुबल से इसे संकोच नहीं होता। यह उसके आते ही हम सबको भूलकर भाई से जा चिपटती है। सच बात यह है कि हममें-से भी कोई ऐसी नहीं जो मध्याह्न के पश्चात् से सुबल के लौटने की प्रतीक्षा न करने लगती हों। उसके मुख से उसके सखा के रूप, गुण, विक्रम का वर्णन सुनने को सभी के श्रवण समुत्सुक रहते हैं। |
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