नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गायत्री-केशी-क्रंदन
शक्र का अश्व-सेवक कुमुद यदि देवराज के घोटक पर मुग्ध होकर एक दिन आरूढ़ ही हो गया था तो कौन-सा अनर्थ हो गया; किंतु इन्द्र ने क्रोध में उसे शाप दे दिया- 'तूने मेरे अश्व पर आरूढ़ होने की धृष्टता की है, अतः असुर अश्व हो जा!' कुमुद स्वर्ग का अधिकारी था। अत्यधिक पुण्य प्रारब्ध था उसका। अब वह असुर हुआ तो अश्वयम्भावी बात थी कि अत्यधिक शक्ति प्राप्त कर लेगा। सत्त्वमूर्ति सुरों में जो रह सकता था, उसे शाप देकर असुर बनाया जायेगा तो उसकी शक्ति अवश्य असह्य हो जायेगी। अब इन्द्र उसी अश्व से आतंकित रहता है। केशी जब सिर उठाकर हिन-हिनाता है, वज्रपाणि सुरराज को सुरों के साथ संत्रस्त होकर स्वर्ग से भागकर सुमेरु की गुहाओं की शरण लेने की सूझने लगती है। मुझे सुरों की उतनी चिन्ता नहीं है। सुरों की सुरक्षा का दायित्व सृष्टिकर्त्ता पर है। मेरी चिन्ता है श्रुतियों के सम्बन्ध में और श्रुतियों के संरक्षक वेदज्ञ ब्राह्मणों के सम्बन्ध में। इस केशी को कौन मारेगा, यह तो अमर था शापित होने से पूर्व भी। अब यदि यह कल्पान्त तक रह जाता है, प्रलय की रजनी में परिश्रान्त, निद्राधीन ब्रह्मा से वेदों को इसके द्वारा हरण किये जाने से कौन बचावेगा! कंस ने केशी को पराजित करके भी प्रधान सेनापति बना लिया और मथुरा लाकर स्वच्छन्द निवास करने की आज्ञा दे दी। यह दुष्ट असुर-अश्व व्रज के पार्श्व में वन में बस गया। इस नरभक्षी घोटक ने उस वन के दूसरे पशु तो खा ही लिये, उधर से आने वाले अनजान यात्रियों को भी आहार बना लिया। इसका आवास भूत-वन कंकालों से भर गया। गौध, कंक, चीलें और श्रृंगाल जैसे छुद्र उच्छिष्ट माँसभक्षी प्राणी बस गये इसके आस-पास जो इसके आखेट के खा लिये जाने पर अवशेष से अपनी उदरपूर्ति करने के कारण अनजान में ही इस पर आश्रित हो गये थे। फलतः केशी चलता था तो ऊपर गृद्धों, चीलों का समूह मंडराता साथ चलता था। श्रृंगालों के यूथ इससे थोड़ी दूर छिपे इसका अनुगमन करते थे। |
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