नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
81. अक्रूर-अद्भुत दर्शन
कितना विश्वास किया मेरा गोपों ने और श्रीनन्दराय ने। मैं कंस का दूत हूँ, उसका रथ लेकर आया हूँ; किंतु किसी-ने भी तो मुझ-पर तनिक भी सन्देह नहीं किया। कंस कितने असुर यहाँ भेज चुका, कितना कुटिल है, सब जानते हुए भी मुझे स्वजन माना, मुझ-पर- मेरी धार्मिकता पर और इस-पर विश्वास किया कि मैं वसुदेव का सम्बन्ध में भाई हूँ। मेरी उनसे सहानुभूति है। अपना सर्वस्व-प्राण जिन्हें मानते हैं व्रजराज और गोप, उन्हें मेरे साथ कर दिया। कोई एक भी और संरक्षक रखना आवश्यक नहीं माना। कितने सरल-सहज विश्वासी हैं ये लोग। विश्वेश यदि इनके मध्य विराजमान होते हैं तो आश्चर्य क्या। मैंने जो सन्देश दिया, उसके पीछे कंस की कोई कुमन्त्रणा भी है, यह किसी-ने भी तो नहीं पूछा। मुझे स्पष्ट दीखता था कि केवल बालिकाओं ने मुझ पर विश्वास नहीं किया। वे मुझे क्रूर कहने लगी थीं। मैं उनके हृदय-सर्वस्व का अपहरण किये जा रहा था। उनका कोप उचित था। उन्होंने शाप दिया हो, मुझे तो वह भी शिरोधार्य। मैंने कुछ भी तो छिपाया नहीं। कंस की कुटिलता, कुमन्त्रणा, कुविचार स्पष्ट कह दिया; किंतु इन दोनों भाइयों ने उस पर किञ्चित भी तो ध्यान दिया होता। सचमुच मैं क्रूर ही हूँ। मेरा अक्रूर नाम निरर्थक है। मैं इन कोमल किशोरों को काल के मुख में लिये जा रहा हूँ। सुना है कि अनन्त के साथ स्वयं श्रीहरि ने भूभार-हरणार्थ अवतार लिया है; किंतु हैं तो अभी ये सुकुमार किशोर ही। कंस क्रूर है और सुरेन्द्र भी उसके क्रोध से सशंक रहते हैं। वह स्वर्ग पर विजय पा चुका है। अमित-पराक्रम असुर उसके सेवक हैं। अवश्य इन्होंने अनेक प्रमुख कंस के अनुचरों को यमलोक भेजा है; किंतु वे एकाकी आये थे। अब मथुरा में कंस और उसकी पूरी सेना है। कैसे कहा जा सकता है कि कल क्या होगा। मैं इन्हें अपना आराध्य भी मानता हूँ और आपत्ति के मुख में भी लिए जा रहा हूँ- कितनी अधमता है मेरी? किसी कर्त्तव्य का निश्चय नहीं कर पा रहा था। नन्दराय गोपों के साथ जा चुके थे। वे मथुरा पहुँचकर वाह्योद्यान में मेरी प्रतीक्षा करेंगे। ये सर्वेश्वर स्वयं सुप्रसन्न चल रहे हैं। मुझे ये पितृव्य कहते हैं, प्रणाम करते हैं। मुझ-पर इनका स्नेह है। वसुदेव भी मेरा विश्वास करते हैं, भले कुअवसर के कारण मैंने कंस की सेवा स्वीकार कर ली है। |
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