नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
43. कीर्त्ति मैया-प्रथम परिचय
यह लाली-इसकी नासिका के अग्र-भाग का लाल तिल देखकर महर्षि गर्गाचार्य कहने लगे- 'यह तो लोकमहेश्वरी है।' इतनी भोली, सीधी कन्या- यह मेरी लाली है, इतना ही बहुत है। मुझे ईश्वरी-महेश्वरी नहीं चाहिये। गोपियाँ सूतिका गृह में ही इसे देखकर कहने लगीं- 'कीर्त्ति रानी ने ऐसी कन्या पायी है जो माता के उदर से ही सौभाग्य बिन्दु और सिन्दुर लगाये आयी है।' इसके भाल का वह अत्यन्त सुन्दर लाल बिन्दु- इतना सुन्दर एवं ज्योतित सौभाग्य बिन्दु तो किसी सुहागिनी के शीश पर मैंने नहीं देखा और इसके सिर के सघन केशों के मध्य जो सीधी सिन्दूर रेखा है, वह तो सदा स्पष्ट ही रहती है। मैंने अनेक बार इसके सघन, सुकोमल घुँघराले काले केश बिखरा-कर देख लिया, इसके केश ही ऐसे हैं कि इसकी माँग, उस माँग की स्वाभाविक सिन्दूर रेखा को ढका नहीं जा पाता। महर्षि गर्गाचार्य ने नामकरण के समय देर तक इसको अपने अंक में रखा था और इनके पदों को ही देखते रहे थे। इन ऋषि-मुनियों की बात मैं पूरी समझ नहीं पाता। पूछने पर उन्होंने जो कुछ कहा, कम ही मैं स्मरण रख सकी। आह्लादिनी, परमा आदि क्या जाने क्या-क्या कह गये। मेरे पल्ले इतना ही पड़ा कि इसके वाम-पद के सब चिह्न नन्दनन्दन के दाहिने पद-चिह्नों से और दाहिेने पद-चिह्न वाम पद-चिह्नों से मिलते हैं। महर्षि ने बतलाया नहीं, परन्तु मैं समझ गयी कि वे गोकुल में यशोदा के लाल को देखकर ही आये होंगे। महर्षि चले जाने पर मैंने ध्यान देकर इसके पद देखे थे। कमल, यव, ध्वजा-पताका, अंकुश, स्वस्तिक आदि चिह्न और किसी शिशु के पद में मैंने कभी नहीं देखे। महर्षि की बात का मैंने एक ही अर्थ समझा कि यह यशोदा के अंक-धन की ही बनेगी और यह तो मेरी, मेरे स्वामी की सदा की कामना ही थी। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज